Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 18
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सात तत्त्वों सम्बम्धी भूल जीवादि सात तत्त्वों को सही रूप में समझे बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अनादिकाल से जीवों को इनके सम्बन्ध में भ्रान्ति रही है। यहाँ पर संक्षिप्त में उन भूलों को स्पष्ट किया जाता है। जीव और अजीवतत्त्व सम्बन्धी भूल जीव का स्वभाव तो जानने-देखने रूप ज्ञान-दर्शनमय है और पुद्गल से बने हुए शरीरादि-वर्ण, गंध, रस और स्पर्शवाले होने से मूर्तिक हैं। धर्म द्रव्य , अधर्म द्रव्य, काल द्रव्य और आकाश द्रव्य के अमूर्तिक होने पर भी जीव की परिणति इन सबसे जुदी है, किन्तु फिर भी यह आत्मा इस भेद को न पहिचान कर शरीरादि की परिणति को प्रात्मा की परिणति मान लेता है। अपने ज्ञान स्वभाव को भूलकर शरीर की सुन्दरता से अपने को सुन्दर और कुरूपता से कुरूप मान लेता है तथा उसके सम्बन्ध से होने वाले पुत्रादिक में भी आत्म-बुद्धि करता है। शरीराश्रित उपवासादि और उपदेशादि क्रियाओं में भी अपनापन अनुभव करता है। शरीर की उत्पत्ति से अपनी उत्पत्ति मानता है और शरीर के बिछुड़ने पर अपना मरण मानता है। यही इसकी जीव और अजीव तत्त्व के सम्बन्ध में भूल है। जीव को अजीव मानना जीव तत्त्व सम्बन्धी भूल है और अजीव को जीव मानना अजीव तत्त्व सम्बन्धी भूल है। आस्त्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल राग-द्वेष-मोह आदि विकारी भाव प्रकट में दुःख को देने वाले हैं, पर यह जीव इन्हीं का सेवन करता हुअा अपने को सुखी मानता है। कहता है कि शुभराग तो सुखकर है, उससे तो पुण्य बन्ध होगा, स्वर्गादिक सुख मिलेगा; पर यह नहीं सोचता कि जो बन्ध का कारण है, वह सुख का कारण कैसे होगा तथा पहली ढाल में तो साफ ही बताया है कि स्वर्ग में सुख हैं कहाँ ? १५ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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