Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 390
________________ विस्तार से बताई। मां ने सारी बात सुनकर कहा- 'देव! तुम्हारा यह खेल कब तक चलेगा?' 'मां! आप चिन्ता न करें। मैं स्वयं इसको लम्बा करना नहीं चाहता। मुझे विश्वास है कि महाराजा मेरे अन्तिम संदेश पर कुछ उत्तम निर्णय लेंगे।' 'मेरी भी यही इच्छा है, फिर भी हमें एक मर्यादा निश्चित करनी होगी। ऐसे तो यह भी एक संघर्ष ही है और संघर्ष में क्षत्रिय कठोर हो जाते हैं।' सुकुमारी ने कहा। 'तो मां! आप आज्ञादें तो मैं स्वयं जाकर महाराजा को सारा वृत्तान्त सुना दूं। किन्तु मैं एक गौरवपूर्ण समाधान चाहता हूं। इस समाधान में मेरा गौरव गौण है, पर मेरी मां का गौरव प्रधान है। यह एक महारानी के स्वाभिमान का प्रश्न है।' सुकुमारी विचारों में फंस गई। देवकुमार ने मां की गोद में सिर रखकर कहा'मां! यदि आपको मेरा कार्य उचित न लगता हो तो मैं आज ही उसे छोड़ दूं।' 'नहीं, बेटा! तुम्हारे ऐसे साहस का मैं अवमूल्यन करना नहीं चाहती। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि इस खेल की समाप्ति कब होगी। संसार में जैसे बालहठ और स्त्रीहठ प्रसिद्ध हैं, वैसे ही राजहठ भी है।' 'मां! आपकी बात सही है....अब मैं एक महीने की अवधि निर्धारित करता हूं। यदि इस कालावधि में राजराजेश्वर नहीं समझ पाएंगे तो मैं आपको पुन: प्रतिष्ठानपुर ले जाना पसन्द करूंगा और जाते समय मैं चोरी का सारा सामान राजभवन में पहुंचा दूंगा।' मां प्रेम से पुत्र का सिर सहलाने लगी। मां के नयन सजल हो गए थे। वह बोली- 'देव! एक महीने की अवधि से मैं सहमत हूं, किन्तु स्त्री अर्धांगिनी होती है। उसके लिए पति ही सर्वस्व होता है। पति के समक्ष गौरव और स्वाभिमान का प्रश्न ही नहीं उठता। एक महीने के भीतर यदि तुम्हारा कार्य सफल न हो तो तुम प्रतिष्ठानपुर चले जाना । मैं अपने स्वामी के पास चली जाऊंगी। मुझे देखते ही वे पहचान लेंगे।' देवकुमार सिर उठाकर बोला- 'मां...!' 'देव! तुम्हें आज तक मां के हृदय का ही परिचय मिला है, एक आर्य नारी के हृदय का परिचय नहीं हुआ है। तुम चिन्ता मत करना । मेरा मन बोलता है कि तुम्हारा श्रम निष्फल नहीं होगा। मां ने भावभरे स्वरों में कहा। देवकुमार मां के तेजोमय मुख की ओर देखता रहा। दोनों नहीं जानते थे कि वीर विक्रम ने संघर्ष को टालने के लिए राजसभा में ऐसी घोषणा की है जो वीर, धीर और परदुःखभंजन व्यक्ति के योग्य है। वीर विक्रमादित्य ३८३

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