Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 431
________________ रथ राजभवन पर पहुंच गया । वीर विक्रम ने मनमोहिनी की ओर देखकर कहा- 'बेटी ! क्या चादर साथ लायी हो ? मृदु 'जी, मैंने अपनी चादर साथ में ही रखी है।' मनमोहिनी ने उत्तर दिया । स्वरों में रथ राजभवन के पिछले हिस्से में जा रुका। वीर विक्रम मनमोहिनी को लेकर अपने निजी कक्ष में गए और एक आसन की ओर संकेत करते हुए बोले- 'बेटी ! तुम यहां बैठ जाओ, फिर निश्चिन्तता से बात कहो । ' ‘मेरी बात अत्यन्त स्पष्ट है । यह बालक आपका पौत्र है। आपकी शर्त पूरी कर मैंने यह सिद्ध कर दिया है कि संसार में स्त्री चरित्र अपूर्व होता है। इस विषय में आपको कुछ पूछना हो तो पूछें ।' दो क्षण सोचकर विक्रम बोले- 'मनमोहिनी ! तुम्हारी बात सच हो सकती है, पर मैं कैसे मानूं ?' 'आप एक कार्य करें। युवराजश्री, युवराजश्री की मातुश्री, उनके मित्र मंत्री पुत्र और मेरे माता-पिता को यहां बुला लें ।' 'इन सबकी क्या जरूरत है? अकेले युवराज को बुलाने से काम नहीं चल सकता ?' 'आप यदि मेरे कथन को मान सकते हैं तो किसी को बुलाने की आवश्यकता नहीं, किन्तु मेरी सच्चाई के जो-जो साक्षी हैं, उनको ही बुलाने के लिए मैंने कहा है।' विक्रम ने अजय को भेजकर सबको बुला लिया । लगभग तीन घटिका के बाद कमलारानी, देवी सुकुमारी, कलावती और देवी लक्ष्मीवती आ पहुंचीं। सुदंत सेठ भी सेठानी के साथ राजभवन में आ गये। युवराज अपने मित्र सुरभद्र के साथ आ गये। मनमोहिनी के कहने से एक पालना आ गया। उसमें उसने अपने पुत्र को सुला दिया और स्वयं चादर का घूंघट निकालकर पालने के पास बैठ गई। सभी के मन में विविध प्रश्न उभर रहे थे। वीर विक्रम अपने आसन पर बैठे-बैठे सबकी ओर देखकर बोले- 'आप सबको आश्चर्य होगा कि यह युवती कौन है ? आपके समक्ष मैं माता-पुत्र को क्यों प्रस्तुत करना चाहता हूं ? सवा- डेढ़ वर्ष पूर्व की घटना है, मैंने उसको गुप्त रखा था। विक्रमचरित्र के समक्ष स्त्री - चरित्र नगण्य है, यह बात देवकुमार ने अपने ४२४ वीर विक्रमादित्य

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