Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 389
________________ 'हां, संभव है आपको उसकी विस्मृति हो गई हो ?’ 'कमला ! मुझे कुछ भी याद नहीं है।' 'प्राणनाथ! चोर की वाणी में विवेक ही नहीं झलकता, उसमें भक्ति और श्रद्धा की भी झलक है। सर्वहर के साथ संघर्ष करने में बदनामी होगी। सर्वहर सदा अपनी चुनौतियों को पूरा करता आ रहा है। इस पत्र के एक वाक्य ने मेरे हृदय को झकझोर डाला। सर्वहर लिखता है कि आज तक उसने मर्यादा और भक्ति का पालन किया है। अब उसे कुछ और ही कदम उठाना पड़ेगा।' कमला ने कहा । वीर विक्रम विचारों में खो गए । रात्रि में मंत्रणा के लिए सभी एकत्रित हुए। चोर को पकड़ने के लिए अनेक उपाय सोचे गए, किन्तु स्पष्ट निर्णय किये बिना मंत्रणा पूरी हो गई । दूसरे दिन राजसभा प्रारम्भ हुई। आज राजसभा का माहौल कुछ विचित्र इसलिए था कि वीर विक्रम अपनी ओर से कुछ घोषणा करने वाले थे। राजसभा खचाखच भरी थी । बाहर तक हजारों की भीड़ लगी हुई थी। चोर का आतंक प्रत्येक नागरिक के हृदय को तोड़ चुका था। सभी आतंकित थे। चोर को पकड़ने में राजतंत्र सर्वथा असफल रहा, इसलिए जनता के मन में आक्रोश था। महामंत्री, महाबलाधिकृत, महाप्रतिहार आदि विशिष्ट अधिकारी राजसभा को सम्बोधित कर अपनी-अपनी वेदना को स्पष्ट कर चुके थे और जनता को आश्वस्त रहने की प्रेरणा दे रहे थे । अन्त में वीर विक्रम अपने आसन से उठे और बोले- 'सर्वहर ने मेरे पर एक आरोप लगाया है कि मैंने एक सती-साध्वी नारी के प्रति अन्याय किया है, किन्तु बहुत याद करने पर भी मुझे कुछ स्मृति में नहीं आ रहा है, इसलिए मैं इसके स्थायी समाधान के लिए एक निर्णय की घोषणा करना चाहता हूं। सर्वहर चोरियां करता है, पर वास्तव में चोर नहीं है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। वह मात्र अन्याय के प्रायश्चित्त के लिए चोरी करता है। वह बार-बार मुझे चेतावनी भी दे रहा है। इसलिए आज मैं प्रसन्न हृदय से यह घोषणा करता हूं कि आज से सातवें दिन तक सर्वहर मेरी राजसभा में उपस्थित होकर मुझे मेरे अन्याय की स्पष्ट अनुभूति कराए । मैं उसके सारे अपराधों को माफ कर दूंगा। यदि वास्तव में मेरे से अन्याय हुआ होगा तो मैं सर्वहर के द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त स्वीकार करूंगा।' वीर विक्रम के निर्णय से सभी अवाक् रह गए। जय-जयकार के साथ राजसभा का कार्य सम्पन्न हुआ । महामंत्री भट्टमात्र के बुद्धि-चातुर्य पर लात मारने वाला जयकुमार और कोई नहीं, देवकुमार ही था । वह महामंत्री के घर चोरी कर सीधा विक्रमगढ़ चला गया और अपनी माता को स्वर्णथाल और नीलम की माला देते हुए उसको सुरक्षित रखने के लिए कहा। फिर उसने महामंत्री को कैसे प्रताड़ित किया, यह बात मां को ३८२ वीर विक्रमादित्य

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