Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 432
________________ बुद्धिबल से प्रस्थापित की थी, किन्तु मनमोहिनी ने इस बात को नकारा और अपनी बात प्रमाणित करने का बीड़ा उठाया। मैंने उसकी शर्त स्वीकार कर ली और इसने मेरी। माता-पिता की सहमति से मैंने युवराज के खड्ग के साथ इसका विवाह गुप्त-रूप में सम्पन्न किया। इस बात की खबर युवराज को भी नहीं लगी। एकाध वर्ष पूर्व मैंने यह रहस्य युवराज को बताया, किन्तु विवाह के तत्काल बाद ही मैंने मनमोहिनी को एक ऐसे भूगृह में रखा जहां एक चिड़िया भी नहीं आ-जा सकती। मेरी शर्त थी कि यदि उसकी गोद में मेरा पौत्र क्रीड़ा करता होगा, तो मैं उसको मुक्त कर दूंगा और उसे युवराज्ञी के पद-गौरव से विभूषित करूंगा। आज प्रात: मुझे यह संवाद मिला कि मनमोहिनी की गोद में पुत्र पोषित हो रहा है। मैं कारागार में गया। मनमोहिनी ने अपने पुत्र को मेरे पौत्र के रूप में प्रस्तुत किया। उसकी यह बात कितनी यथार्थ है, इसकी जानकारी तो युवराज के शब्दों से ही हो सकती है।' युवराज ने धूंघट निकाले बैठी हुई मनमोहिनी की ओर लाल-लाल नेत्रों से देखकर कहा-'पिताजी! यह नारी असत्य बात कहते क्यों नहीं सकुचाती? मेरे खड्ग के साथ परिणीता इस नारी को मैंने कभी नहीं देखा। यह कहां थी, इसकी भी मुझे जानकारी नहीं थी। मैंने इसे स्वप्न में भी कभी नहीं देखा।' बूंघट में मुंह छिपाए बैठी मनमोहिनी मन-ही-मन हंसने लगी। सुकुमारी, कमलारानी, कलावती आदि सभी अवाक्थे। सुरभद्र भी किसी दूसरी दुनिया में विचरण करने लगा था। वीर विक्रम ने मनमोहिनी की ओर दृष्टि कर कहा- 'मनमोहिनी! युवराज की बात सुनी?' 'हां, आपके पुत्र असत्य क्यों कहते हैं, मैं समझ नहीं सकी। वे स्वप्न में भी मुझसेन मिलने की बात कह रहे हैं, किन्तु मेरे स्वामी मुझसे मिले थे, उसका जीवन्त साक्षी है यह पुत्र!' बीच में ही युवराज आसन से उठकर बोले- 'महाराज! यह स्त्री भयंकर झूठ बोल रही है। मनमोहिनी का यह भी एक स्त्रीचरित्र है, पर मेरे आगे स्त्रीचरित्र की कोई कीमत नहीं।' ___ 'महाराज! आप अपने पुत्र को शांत बैठे रहने की आज्ञा करें। आवेश में कुछ नहीं होता। मैं स्त्रीचरित्र से कहां इनकार करती हूं? विक्रमचरित्र से भी स्त्रीचरित्र लाख गुना विशेष होता है, यह बात सिद्ध करने के लिए ही तो मुझे यह सब करना पड़ा है। मैंने अपना पातिव्रत धर्म सुरक्षित रखा है। यह बच्चा मेरे स्वामी का ही है। मैं अपने स्वामी से प्रार्थना करती हूं कि वे मुझे स्वीकार करें अन्यथा मुझे सबके समक्ष उन्हें याद दिलानी होगी।' वीर विक्रमादित्य ४२५

Loading...

Page Navigation
1 ... 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448