Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 441
________________ एक दिन पुष्पसेना अपने आरामगृह में विचारमग्न होकर बैठी थी। उसने सोचा-क्या इस विराट् नगरी में भी मुझे निराश होना पड़ेगा? मेरे हृदय को पुलकित करने वाला, मेरे चित्त को प्रसन्न करने वाला और मेरे जीवन को रसमय बनाने वाला कोई नौजवान मुझे मिलेगा ही नहीं? उसी क्षण परिचारिका वृन्दा ने आकर कहा- 'देवी! एक अतिथि आए हैं।' 'अतिथि?' 'हां देवी, चोपड़ खेलने के लिए आए हैं।' 'कैसे हैं?' 'नौजवान, कार्तिकेय जैसे सुंदर और मधुर वाणी वाले।' 'तब तो तू भी उन पर मुग्ध हो गई हो, ऐसा प्रतीत होता है। मुस्कराते हुए पुष्पसेना ने कहा। 'देवी! मैं सच कह रही हूं। मेरे वर्णन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। कोमल शरीर, वय में भी आप जैसा, उसकी आंखें बहुत कातिल हैं, पतली मूछे, पुष्ट छाती, मानो कामदेव ही तरुण का रूप धारण कर आया हो।' 'अच्छा-अच्छा, जा, तू उनका स्वागत कर । मैं कुछ ही क्षणों में आती हूं।' पुष्पसेना ने कहा। ____ वह वस्त्रगृह में गई। वस्त्र बदले। शृंगार कर ज्यों ही वह कक्ष में आयी, उसकी दृष्टि अतिथि पर पड़ी। उसने सोचा, वृन्दा ने जो कहा था, उसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है। ___अतिथि अन्य कोई नहीं, युवराज्ञी मनमोहिनी स्वयं पुरुष के वेश में अतिथि के रूप में आयी थी। पुष्पसेना ने पूछा- 'आपका परिचय ?' "मैं बीस वर्ष का नौजवान हूं। मैं एक धनाढ्य व्यापारी का पुत्र हूं। मेरा नाम है-मनमोहन।' मनमोहिनी ने मुस्कराते हुए कहा। ___ वृन्दा एक ओर खड़ी थी। पुष्पसेना ने वृन्दा की ओर देखकर कहा'वृन्दा! अतिथि का मैरेय, पानक, दूध आदि से सत्कार कर।' 'मैं जैन हूं। सूर्यास्त के बाद जल-पान नहीं लेता।' 'तब आपका स्वागत.....?' 'भावना से होने वाला स्वागत श्रेष्ठ होता है। आपने उत्तम स्वागत किया है। मैं आपकी शर्त को स्वीकारने आया हूं।' ४३४ वीर विक्रमादित्य

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