Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 435
________________ ऐसा चार-पांच बार होने के पश्चात् श्रीधर ने यह निश्चय कर लिया था कि मेरे भाग्य में धन है ही नहीं, इसलिए भिक्षावृत्ति से ही काम चलाना श्रेयस्कर है। संसार में कोई भी प्राणी दरिद्रता नहीं चाहता। सभी व्यक्ति सुख का स्वप्न लेते हैं। किन्तु श्रीधर इसमें अपवाद था। क्योंकि जो धन उसे मिलता, वह मात्र एक रात उसके पास टिकता था । एक दिन ब्राह्मणी बोली- 'अब तो रात को नींद भी नहीं आती। तीन-तीन लड़कियां ब्याहने योग्य हो गई हैं। उनके लिए योग्य वर की खोज करनी चाहिए।' 'मैं सब समझता हूं, किन्तु करूं क्या ? हमारी गरीबी ऐसी है कि कोई भी हमारी कन्या लेने के लिए तैयार नहीं होता।' 'फिर भी कोई-न-कोई मार्ग तो ढूंढना ही होगा। आप तो बड़े पंडित हैं। अनेक विद्याएं जानते हैं। एक बार आपने कहा था कि मेरे पास 'सागरदेव' को प्रसन्न करने का मंत्र है। आप उसका प्रयोग क्यों नहीं करते ?' ‘इसके लिए मुझे आठ-दस महीने घर से दूर रहना होगा। मेरे बिना परिवार का पोषण कौन करेगा ?' ‘आप साहस करें। मैं यह भार अपने ऊपर लेती हूं। मैं पांच-दस घरों में भिक्षा के लिए जाऊंगी और काम चला लूंगी।' 'क्या तुम भीख मांगोगी ?' 'हां, इसमें लज्जा की क्या बात है ?' योजना तय हो गई और पांच-सात दिन पश्चात् श्रीधर सागरतट पर जाने के लिए निकल पड़ा । दो मास का प्रवास था । वह सागरतट पर पहुंच गया । वह एकान्त में अपना आसन बिछा बैठ गया। उसने सागरदेव की आराधना प्रारंभ कर दी। एक दिन, दो दिन, चार दिन, छह दिन बीत गए । क्षुधा-प्यास के परिताप की परवाह किए बिना वह आराधना में अडोल बैठा रहा । सातवें दिन रात्रि के दूसरे प्रहर में सागरदेव साक्षात् उपस्थित होकर बोले –‘श्रीधर! मैं सागरदेव हूं। तेरी आराधना से प्रसन्न हूं। जो तुझे चाहिए, वह मांग ले ।' ‘कृपानाथ! आज मैं धन्य हुआ। मैं और कुछ नहीं चाहता, दूर हो, ऐसा उपाय करें । ' मेरी दरिद्रता ‘वत्स ! तेरे कर्म बहुत प्रबल हैं। तेरे भाग्य में धन है ही नहीं, फिर भी मैं तुझे चार रत्न देता हूं। तू इन रत्नों को मेरे मित्रतुल्य वीर विक्रम को दे देना । तेरे भाग्य में जो होगा, वह वीर विक्रम से मिल जाएगा।' ४२८ वीर विक्रमादित्य

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