Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 399
________________ विक्रम के इक्यावन रानियां थीं, पर किसी से पुत्ररत्न की प्राप्ति नहीं हुई थी। एक भी पुत्र न होने के कारण जनता का मन भी उद्विग्न था । आज यह दु:ख आनन्द में बदल गया था । लोग भी अत्यन्त उत्साहित थे । वे भिन्न-भिन्न टोलियां बनाकर विक्रमगढ़ की ओर चल पड़े। अभी दिन का दूसरा प्रहर चल रहा था। ७१. विक्रमचरित्र कुछ मिलन स्मृति में अंकित हो जाते हैं। कुछ मिलन हर्ष के आंसुओं के पुष्पों से समृद्ध बनते हैं और कुछ मिलन जीवन के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं। वीर विक्रम अपने दल-बल सहित विक्रमगढ़ पहुंच गए। अपने नगर में स्वयं महाराज पधारे हैं, यह समाचार सुनकर विक्रमगढ़ की जनता अत्यन्त हर्षित हो गई । देवकुमार के कहने पर सभी रथ एक स्थान पर खड़े कर दिए गए और लोग वीर विक्रम का जय-जयकार करने लगे । भोजन से निवृत्त होकर सुकुमारी शय्या पर करवटें बदल रही थी..... आज की राजसभा में क्या हुआ होगा, यह प्रश्न उसके हृदय को कचोट रहा था। उसी समय जयनाद का कोलाहल उसके कानों से टकराया। वह उठी। उस समय वीर विक्रम आदि सभी अपने-अपने रथ से नीचे उतर रहे थे। देवकुमार सबके आगे चल रहा था। एक सेवक ने मकान का द्वार खोला। एक दासी दौड़ती हुई सुकुमारी के पास जाकर बोली- 'देवी ! भाई के साथ मालव के स्वामी पधारे हैं। उनके साथ अनेक स्त्रियां और पुरुष हैं।' सुकुमारी का हृदय नाच उठा। उसकी वेशभूषा अत्यन्त सादगीपूर्ण थी। वह कुछ निर्णय करे उससे पूर्व ही देवकुमार दौड़कर मां के पास आकर बोला'मां! आपका स्वागत करने के लिए स्वयं पिताश्री अपने परिवार के साथ आए हैं । ' विक्रम बरामदे में आ पहुंचे । देवकुमार कक्ष से बाहर निकलकर बोला'पिताश्री ! यहां पधारें । मेरी मां यही हैं।' सोलह वर्ष के दीर्घ वियोग के पश्चात् आज पत्नी से मिलन हो रहा था। वीर विक्रम के हृदय में उमंग के साथ-साथ विस्मृति के बादल के पीछे छिपे हुए मधुर संस्मरण एक-एक कर उभरने लगे । ३६२ वीर विक्रमादित्य

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