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२०२ भीमद् राजबन्द्र
[पत्र ११८ अंतःकरणसे उदय हुई अनेक उर्मियोंको बहुतबार समागममें मैंने तुम्हें बताई हैं; और उन्हें सुनकर उनको कुछ अंशोंमें धारण करनेकी तुम्हारी इच्छा देखनेमें आई है। मैं फिर अनुरोध करता हूँ कि जिन जिन स्थलोंपर उन उर्मियोंको बताया हो, उन उन स्थलोंमें जानेपर फिर फिर उनका अधिक स्मरण अवश्य करना।
आत्मा है। वह बँधी हुई है। वह कर्मकी कर्ता है। वह कर्मकी भोक्ता है। मोक्षका उपाय है। आत्मा उसे सिद्ध कर सकती है।
-ये छह महाप्रवचन हैं, इनका निरंतर मनन करना । प्रायः ऐसा ही होता है कि दूसरेकी विडंबनाका अनुग्रह नहीं करते हुए अपने अनुग्रहकी ही इच्छा करनेवाला जय नहीं पाता; इसलिये मैं चाहता हूँ कि तुमने जो स्वात्माके अनुग्रहमें दृष्टि लगाई है उसकी वृद्धि करते रहो; और इससे परका अनुग्रह भी कर सकोगे।
___ धर्म ही जिसकी अस्थि और धर्म ही जिसकी मज्जा है, धर्म ही जिसका रुधिर है, धर्म ही जिसका आमिष है, धर्म ही जिसकी त्वचा है, धर्म ही जिसकी इन्द्रियाँ है, धर्म ही जिसका कर्म है, धर्म ही जिसका चलना है, धर्म ही जिसका बैठना है, धर्म ही जिसका खड़ा रहना है, धर्म ही जिसका शयन है, धर्म ही जिसकी जागृति है, धर्म ही जिसका आहार है, धर्म ही जिसका विहार है, धर्म ही जिसका निहार (1) है, धर्म ही जिसका विकल्प है, धर्म ही जिसका संकल्प है, धर्म ही जिसका सर्वस्व है; ऐसे पुरुषकी प्राप्ति होना दुर्लभ है; और वह मनुष्य-देहमें ही परमात्मा है । इस दशाकी क्या हम इच्छा नहीं करते ! इच्छा करते हैं, तो भी प्रमाद और असत्संगके कारण उसमें दृष्टि नहीं देते ।
__ आत्म-भावकी वृद्धि करना, और देह-भावको घटाना ।
११८ (मोरवी) जेतपर, प्र. भाद्र. वदी ५ बुध. १९४६ भगवतीसूत्रके पाठके संबंधों मुझे तो दोनोंके ही अर्थ ठीक लगते हैं । बाल-जीवोंकी अपेक्षासे टब्बाके लेखकका अर्थ हितकारक है; और मुमुक्षुओंके लिये तुम्हारा कल्पना किया हुआ अर्थ हितकारक है; तथा संतोंके लिये दोनों ही हितकारक हैं । जिससे मनुष्य ज्ञानके लिये प्रयत्न करे, इसके लिये ही इस स्थलपर प्रत्याख्यानको दुष्प्रत्याख्यान कहा गया है । यदि ज्ञानकी प्राप्ति जैसी चाहिये वैसी न हुई हो तो जो प्रत्याख्यान किया है, वह देव आदि गति देकर संसारका ही कारण होता है, इसलिये इसे दुष्प्रत्याख्यान कहा; परन्तु इस जगह ज्ञानके बिना प्रत्याख्यान बिलकुल भी करना ही नहीं, ऐसा कहनेका तीर्थकरदेवका अभिप्राय नहीं है।