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पत्र ४६८] विविध पत्र आदि संग्रह-२८याँ वर्ष
४२९ चित्तमें ऐसा विचार रहा करता है कि जबतक हमसे परिग्रह आदिका लेने देनेका व्यवहार उदयमें हो तबतक स्वयं उस कार्यको करना चाहिये, अथवा उसे व्यवहारसंबंधी नियमोंसे करना चाहिये । किन्तु मुमुक्षु पुरुषको तत्संबंधी परिश्रम देकर नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस कारणसे जीवके मलिन वासनाका पैदा हो जाना संभव है । कदाचित् हमारा चित्त शुद्ध ही रह सकता हो, किन्तु फिर भी काल ही कुछ ऐसा है कि यदि द्रव्यसे भी शुद्धि रक्खें तो दूसरे जीवमें विषमता पैदा न होने पावे, और अशुद्ध वृत्तिवान जीव भी तदनुसार वर्तन कर परम पुरुषोंके मार्गका नाश न करे-इत्यादि विचारपर मेरा चित्त लगा रहता है।
तो फिर जिसका परमार्थ-बल अथवा चित्त-शुद्धिभाव हमसे कम हो उसे तो अवश्य ही उस मार्गणाको मजबूत बनाये रखनी चाहिये, यही उसके लिये प्रबल श्रेय है, और तुम्हारे जैसे मुमुक्षु पुरुषको तो अवश्य ही वैसा करना उचित है। क्योंकि तुम्हारा अनुकरण सहज ही दूसरे मुमुक्षुओंके हिताहितका कारण हो सकता है। प्राण जानेकी विषम अवस्थामें भी तुमको निष्कामता ही रखनी चाहिये-हमारा यह विचार तुम्हारी आजीविकाके कारण चाहे जैसे दुःखोंके प्रति अनुकंपा होनेपर भी मिटता नहीं है, किन्तु उल्टा और बलवान होता है । इस विषयमें विशेष हेतु देकर तुम्हें निश्चय करानेकी इच्छा है और वह निश्चय तुम्हें होगा ही, ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है।
इस प्रकार तुम्हारे अथवा दूसरे मुमुक्षु जीवोंके हितके लिये मुझे जो ठीक लगा वह लिखा है । इतना लिखनेके बाद मेरे आत्मार्थके संबंधमें मेरा कुछ दूसरा ही निजी विचार है, जिसको लिखना उचित न था। किन्तु तुम्हारी आत्माको दुखाने जैसा मैंने तुम्हें कुछ लिखा है, इसलिये उसका लिखना योग्य मानकर ही उसे यहाँ लिखा है । वह इस प्रकार है कि जबतक परिग्रहादिका लेना देना हो-वैसा व्यवहार हमारे उदयमें हो, तबतक जिस किसी भी निष्काम मुमुक्षु अथवा सत्पात्र जीवकी अथवा उसकी हमारे द्वारा अनुकंपा भावकी जो कुछ भी सेवा-चाकरी, उसको कहे बिना ही, की जा सके, उसे द्रव्यादि पदार्थसे भी करनी चाहिये । क्योंकि इस मार्गको ऋषभ आदि महापुरुषोंने भी कहीं कहीं जीवकी गुण-निष्पन्नताके लिये आवश्यक माना है। यह हमारा अपना निजका विचार है और वैसा आचरण सत्पुरुषके लिये निषिद्ध नहीं है, किन्तु किसी प्रकारसे वह कर्तव्य ही है। यदि उस विषय या सेवा-चाकरीसे उस जीवके परमार्थका निरोध होता हो तो उसका भी सत्पुरुषको उपशमन ही करना चाहिये।
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बम्बई, मंगसिर १९५१ __ श्रीजिन आत्म-परिणामकी स्वस्थताको समाधि, और आत्म-परिणामकी अस्वस्थताको असमाधि कहते हैं । यह अनुभव-ज्ञानसे देखनेसे परम सत्य सिद्ध होता है।
अस्वस्थ कार्यकी प्रवृत्ति करना और आत्म-परिणामको स्वस्थ रखना, ऐसी विषम प्रवृत्ति श्रीतीर्थकर जैसे ज्ञानीद्वारा भी बनना कठिन कही है, तो फिर दूसरे जीवके द्वारा उस बातको संभवित कर दिखाना कठिन हो, इसमे कुछ भी आश्चर्य नहीं है।