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२२४ श्रीसद्गुरुभक्तिरहस्य]
विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष
२५९ २२४ रालज, भाद. सुदी ८, १९४७
श्रीसद्गुरुभक्ति रहस्य हे प्रभु ! हे प्रभु! हे दीनानाथ दयाल! हे करुणेश ! क्या कहूँ, मैं तो अनंत दोषोंका पात्र हूँ॥१॥
मुझमें शुद्ध-भाव नहीं है, और न मुझमें तेरा पूरा रूप ही है, न मुझमें लघुता है और न दीनता है, तो फिर मैं परम-स्वरूपकी तो बात ही क्या कहूँ॥२॥
न मैंने गुरुदेवकी आज्ञाको हृदयमें अचल किया है, न मुझमें आपके प्रति दृढ़ विश्वास ही है, और न परम आदर ही है ॥ ३ ॥
न मुझे सत्संगका योग है, न सत्सेवाका योग है, न सम्पूर्णरूपसे अपनेको अर्पण करनेका भाव है, और न मुझे अनुयोगका आश्रय ही है ॥ ४॥
मैं पामर क्या कर सकता हूँ ! मुझे ऐसा विवेक नहीं है। मरण समयतक मुझे आपकी चरणशरणका धीरज भी तो नहीं है ॥५॥
तेरे अचिन्त्य माहात्म्यका मुझमें प्रफुल्लित भाव नहीं है, न मुझमें स्नेहका एक भी अंश ही है, और न किसी प्रकारका परम प्रभाव ही मुझे प्राप्त हुआ है ॥ ६॥
मुझमें न तो अचल आसक्ति है और न विरहका ताप ही है, न तेरे प्रेमकी अलभ्य कथा है, और न उसका कुछ परिताप ही है ॥ ७ ॥
न मेरा भक्ति-मार्गमें प्रवेश है, न भजनमें दृढ़ता है, न अपने धर्मकी समझ है, और न शुभ देशमें मेरा वास ही है ॥ ८॥ ___कलिकालसे काल-दोष हो गया है, इसमें मर्यादा और धर्म नहीं रहे, तो भी मुझे आकुलता नहीं है । हे प्रभु ! मेरे कर्म तो देखो ॥९॥
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श्रीसहुरुभक्ति रहस्य हे प्रभु हे प्रभु शु कहूं, दीनानाथ दयाळ; हुं तो दोष अनंतन, भाजन छु करुणाळ ॥ १ ॥ शुद्धभाव मुजमां नथी, नयी सर्व तुजरूप; नयी लघुताके दीनता, शुं कहुं परमस्वरूप १ ॥२॥ नयी आशा गुरुदेवनी, अचळ करी उरमांहि आपतणो विश्वास दृढ, ने परमादर नाहिं ॥ ३ ॥ जोग नथी सत्संगनो, नथी सत्सेवा जोग; केवळ अर्पणता नथी, नयी आश्रय अनुयोग ॥ ४ ॥ हुँ पामर शें करी शक १ एवो नयी विवेक; चरण शरण धीरज नथी, मरण सुधीनी छेक ॥ ५ ॥ अचिन्त्य तुज माहात्म्यनो, नथी प्रफुलित भाव; अंश न एके स्नेहनो, न मळे परम प्रभाव ॥ ६ ॥ अचलरूप आसक्ति नहि, नहिं विरहनो ताप; कथा अलम तुज प्रेमनी, नहिं तेनो परिताप ॥ ७ ॥ भक्तिमार्ग प्रवेश नहिं नहिं भजन दृढ भान समज नहिं निज धर्मनी, नहिं शुभ देशे स्थान ॥ ८॥ काळदोष कळियी थयो, नहिं मर्यादा धर्म; तोये नहिं व्याकूळता ? जुओ प्रभु मुज कर्म ॥९॥