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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ६४२
गच्छके मतमतान्तर बहुत ही छोटे छोटे विषयोंमें प्रबल आग्रही होकर भिन्न भिन्नरूपसे दर्शनमोहनीयके कारण हो गये हैं; उसका समाधान करना कठिन है । क्योंकि उन लोगोंकी मतिमें, विशेष आवरणको प्राप्त किये बिना ही इतने अल्प कारणोंमें बलवान आग्रह होना संभव नहीं।।
अविरति, देशविरति, सर्वविरति, इनमेंके कौनसे आश्रमवाले पुरुषसे विशेष उन्नति होनी संभव है !
सर्वविरति बहुतसे कारणोंमें प्रतिबंधके कारण प्रवृत्ति कर सकता नहीं ! देशविरति और अविर• तिकी तथारूप प्रतीति होना मुश्किल है, और फिर जैनमार्गमें भी उस बातका समावेश कम है।
यह विकल्प हमें क्यों उठता है ! और उसे शमन कर देनेका चित्त है, उसे शमन किये देते हैं।
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ॐ जिनाय नमः (१) भगवान् जिनके कहे हुए लोकसंस्थान आदि भाव आध्यात्मिक दृष्टिसे ही सिद्ध हो सकते हैं। चक्रवर्ती आदिका स्वरूप भी आध्यात्मिक दृष्टिसे ही समझमें आ सकता है । मनुष्यकी ऊँचाईके प्रमाण आदिमें भी ऐसा ही है । कालप्रमाण आदि भी उसी तरह घटते है। निगोद आदि भी उसी तरह घट सकते हैं। सिद्धस्वरूप भी इसी भावसे मनन करने योग्य मालूम होता है ।
लोकशब्दका अर्थ, अनेकांत शब्दका अर्थ आध्यात्मिक है। सर्वज्ञ शब्दका समझाना बहुत गूढ है । धर्मकथारूप चरित आध्यात्मिक परिभाषासे अलंकृत मालूम होते हैं । जम्बूद्वीप आदिका वर्णन भी आध्यात्मिक परिभाषासे निरूपित किया मालूम होता है।
(२) अतीन्द्रिय ज्ञानके जिनभगवान्ने दो भेद बताये हैं:-देशप्रत्यक्ष और सर्व प्रत्यक्ष देश प्रत्यक्षके दो भेद हैं:-अवधि और मनःपर्यव । इच्छितरूपसे अवलोकन करते हुए आत्माके, इन्द्रियके अवलंबन बिना ही अमुक मर्यादाके जाननेको अवधि कहते हैं। अनिच्छितरूपसे मानसिक विशुद्धिके बलसे जाननेको मनःपर्यव कहते हैं । सामान्य-विशेष चैतन्य-आत्मदृष्टिमें परिनिष्ठित शुद्ध केवलज्ञान सर्व प्रत्यक्ष है।
(३) श्रीजिनभगवान्के कहे हुए भाव अध्यात्म-परिभाषामय होनेसे समझमें आने कठिन हैं । परमपुरुषका संयोग प्राप्त होना चाहिये । जैन परिभाषाके विचारका यथावकाश निदिध्यासन करना योग्य है।