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पहला बोल-११७ धर्म मोक्षधर्म है, क्योकि मोक्ष के सिवाय दूसरी कोई भी वस्तु अनुत्तर वस्तु नही है । मोक्ष ही परम पुरुषार्थ कहलाता है । चार पुरुषार्थो मे मोक्ष पुरुषार्थ अनुत्तर है । सवेग द्वारा इसो मोक्षधर्म पर श्रद्धा उत्पन्न होती है । जब मोक्षधर्म पर दृढ श्रद्धा पैदा होती है, तब मोक्षधर्म के सामने ससार के समस्त पदार्थ स्वभावत तुच्छ प्रतीत होने लगते हैं।
आपको यह तो भलीभाति विदित ही है कि एक रुपये के मुकाबले एक आना की कितनी कीमत है ? आपको एक आना के बदले एक रुपया मिलता हो तो आप एक आना का त्याग करने लिए तैयार हो जाएंगे या नही ? और एक गिन्नी मिलती हो तो एक रुपये को, हीरा मिलता हो तो एक गिन्नी को और चिन्तामणि रत्न मिलता हो तो एक हीरे को त्यागने के लिये तैयार हो जाओगे या नही ? जैसे इनका त्याग करने को तैयार हो जाते हो उसी प्रकार अनुत्तर धर्म के बदले मे तुम ससार की सभी चीजो का त्याग करने के लिए तैयार हो जाओगे । इस त्याग के पीछे भी श्रद्धा काम कर रही है । एक आना की अपेक्षा एक रुपये का मूल्य अधिक है, ऐसी दृढ श्रद्धा तुम्हारे भीतर होगी तो ही तुम एक आना का त्याग कर सकोगे अन्यथा नही । इसी भाति अगर तुम्हे दृढ श्रद्धा होगी कि मोक्षधर्म अनुत्तर है अर्थात् मोक्षधर्म से श्रेष्ठ और कोई वस्तु नही है, तभी तुम ससार की वस्तुओ का त्याग कर सकोगे । नही तो ससार के प्रलोभनो से छूटना बहुत कठिन है । मोक्षधर्म पर दृढ श्रद्धा हो तो ही सासारिक प्रलोभनो पर विजय प्राप्त की जा सकती है और उससे छुटकारा पाया जा सकता है।
अनुत्तर धर्म वही है जो भव-बधनो से मुक्ति देता है,