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दूसरा बोल-१५३
पारी को भी पहले से ही यह निश्चय नही होता कि मेरे व्यापार से मुझे इतना लाभ होगा, फिर भी वह व्यापार मे प्रवृत्ति करता ही है। हम लोगो को भी, इस लोक में अथवा परलोक मे ऐसा फल मिलेगा, ऐसी कामना से कार्य नही करना चाहिये, वरन् फल की परवाह न करते हुये कार्य करते रहना चाहिये । साराश यह है कि इन्द्रियजनित सुख की आकाक्षा न करना ही निष्काम कर्म करने का आशय है और फल को जाने बिना मूर्ख भी प्रवृत्ति नही करता, इस कथन का आशय यह है कि इन्द्रियजनित सुख-रूप नही किन्तु उससे पर अर्थात् अतीन्द्रिय सुखरूप और ज्ञानियो द्वारा प्रशसित फल को सामने रखकर ही कार्य में प्रवृत्ति करनी चाहिये ।।
निर्वेद से क्या लाभ होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा है-निर्नेद से देव, मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी कामभोगो के प्रति अरुचि उत्पन्न होगी। जीवन मे निर्वेद उत्पन्न होते ही विचार आने लगता है कि कब मैं अनित्य और अशुचि के भडार के समान कामभोगो का परित्याग करूँ । इस तरह सासारिक सुखो से निवृत्त होना निर्वेद का फल है।
यहाँ एक विचारणीय प्रश्न खडा होता है कि निर्वेद का जो फल बतलाया गया है वह तो स्वय हो निर्वेद है। कारण और उसका फल अर्थात् कार्य क्या एक ही वस्तु है ? कामभोगो के प्रति अरुचि होना निर्वेद है तब निर्वेद का फल क्या है ?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि इष्ट विषयभोग और अनुसर्गिक विपयभोग अर्थात् देखे हुए और सुने हुए