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२२९- सम्यक्त्वपराक्रम ( १ )
ज्ञान और श्रद्धान अज्ञान - अन्धकार के कारण ही होता है । जितने भी बुरे काम होते दिखाई देते है, वह सब अज्ञान - अन्धकार के हो कारण । ज्ञानियों ने अज्ञान की गणना भी क्षयोपशम मे की है । अज्ञान मे भी बुद्धि तो होती है, मगर वह उलटी होती है । पुरुष । पुरुष को ठूठ और ठूंठ को पुरुष समझना अज्ञान है, परन्तु वह है क्षयोपशम भाव । क्षयोपाम भाव के अभाव मे ससारी जोव कुछ जान ही नही सकता । इस प्रकार अज्ञान का अथ यहा कुत्सित ज्ञान या मिथ्याज्ञान है और वह ज्ञानावरण कर्म के क्षयम से उत्पन्न होता है, अतएव क्षायोपशमिकभाव के अन्तगत है । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला ज्ञान जब मिथ्यात्व से युक्त होता है तो वह अज्ञान बन जाता है । इस विपरीत ज्ञान को विपर्यय ज्ञान भी कहते है |
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कहने का आशय यह है कि जिस प्रकार अन्धकार दूर करने के लिए दीपक की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार अज्ञान दूर करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है । जा अज्ञान - अन्धकार हटाकर सच्चे ज्ञान का प्रकाश देता है वह गुरु है । गुरु कौन हो सकता है ? इस सम्बन्ध मे श्री सूयगडागसूत्र मे कहा है – गुरु भन्ने हो आर्य हो या अनार्य सुरूप हो या कुरूप हो, स्थूल शरीर वाला हो या दुबला-पतला हो, परन्तु उसमे अज्ञान - अन्धकार का नाश करने की शक्ति अवश्य होनी चाहिए ।' जिसमे जान का प्रकाश देने की शक्ति हो, समझना चाहिए कि वही गुरु है । दीपक सोने का हो या चादी का हो, अगर प्रकाश न दे सके तो किस काम का ? इसके विपरीत दीपक मिट्टी का