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। तीसरा बोल-२०६ मैं भंवर पडते है, उसी प्रकार आशा-नदी में भी मोह के भंवर पडते हैं । मोह के भंवर-जाल में फसा हुआ मनुष्य सरलता से बाहर नहीं निकल सकता। कुछ लोग ऐसे होते है जो ससार की असारता समझ गये हैं और ससार का त्याग करने की इच्छा भी रखते है, फिर भी मोह के कारण ससार का त्याग नही कर सकते । जब तक मनुष्य मोहावस्था मे फंसा रहता है तब तक आत्मोन्नति नही साध सकता । जैसे नदी मे तट होता है, उसी प्रकार आशा-नदी का तट चिन्ता है । जहा आशा-तृष्णा होती है वहा चिन्ता का होना स्वाभाविक ही है।
ऐसी दुस्तरा महानदी को कौन पार कर सकता है? इस प्रश्न के उत्तर मे कवि ने कहा है-विशुद्ध भावनारूपी नौका मे बैठने वाले, इस नौका की सहायता से दुस्तरा आशा-नदी को पार कर लेते हैं। इस आशा-नदी को पार करने के लिए ही अनगार-धर्म स्वीकार किया जाता है । अनगारिता स्वीकार कर विशुद्ध भावना भाने वाले अनगार आशारूपी नदी पार करते हैं और इस प्रकार शारीरिक तथा मानसिक दुखो से विमुक्त होकर अनन्त आनन्द प्राप्त करते है।
शारीरिक और मानसिक दु खो मे से कौन-सा दुख बुरा है ? शारीरिक दुख दूर करने के लिए डाक्टर है, लेकिन उनसे पूछो कि क्या वे मानसिक दुख भी मिटा सकते है ? डाक्टर शारीरिक दुख दूर कर सकते हैं, मानसिक दुख दूर करना उनके सामथ्र्य से बाहर है । अतएव शारीरिक दुख की अपेक्षा मानसिक दुख महान् है । शास्त्र