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करने का दूरगामी प्रयत्न करता है। इसलिए उसका दृष्टिकोण सत्य का दृष्टिकोण है,शान्ति का दृष्टिकोण है,जन-हित का दृष्टिकोण है । उदाहरण के लिए आत्मा को ही ले लीजिए। सांख्य-दर्शन आत्मा को कूटस्थ (एकान्त) नित्य ही मानता है और कहता है कि 'अात्मा सर्वथा नित्य ही है।' बौद्धदर्शन का कहना है कि' आत्मा अनित्य-क्षणिक ही है । आपस में दोनों का विरोध है, दोनों का उत्तर-दक्षिण का रास्ता है । पर, जैन-दर्शन एक करवट कभी नहीं पड़ता । उसका कहना है कि “यदि आत्मा एकान्ततः नित्य ही हो, तो उसमें क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में रूपान्तर होता हुआ कैसे दीख पड़ता है ? नारकी, देवता, पशु और मनुष्य के रूप में परिवर्तन क्यों होता है आत्मा का ? कूटस्थ नित्य में तो किसी भी प्रकार का पर्याय-परिवर्तन नहीं होना चाहिए । पर, होता है,यह स्पष्ट है । अतः आत्मा सर्वथा नित्य ही हैयह कथन भ्रान्त है। और यदि आत्मा सर्वथा अनित्य ही है, तो “यह वस्तु वही है, जो मैंने पहले देखी थी"यह एकत्व-अनुसन्धानात्मक प्रत्यभिज्ञान नहीं होना चाहिए । पर, प्रत्यभिज्ञान तो अबाध रूप से होता है। इस लिए आत्मा सर्वथा अनित्य (क्षणिक) ही है- यह मान्यता भी त्रुटिपूर्ण है । जीवन में एक करवट पड़कर 'ही' के रूप में हम वस्तु-स्वरूप का निर्णय नहीं कर सकते । हमें तो 'भी' के द्वारा विविध पहलुओं से सत्य के प्रकाश का का स्वागत
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