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( २८ ) की व्याख्या करना है जिनसे वह बालक भली भाँति परिचित हो । उस समय प्राप यह उत्तर देंगे-जिन लहरों, तरंगों, झाग, फेन आदि को तुम अपने सामने देख रहे हो वे संसार के उन सभी भागों में पाये जाते हैं जिन्हें तुमने अभी तक नहीं देखा है । ऐसे सभी सागरों के मिलने से महासागर (समुद्र) बनता है । केवल लहरों, तूफानों और भयावने दृश्यों से 'समुद्र' का ज्ञान नहीं होता। वे तो केवल उसकी सतह पर दृष्टिगोचर होते रहते हैं । इनसे कई मील नीचे वह विस्तृत स्थिरता विद्यमान है जिसे सूर्य की ज्योति, लहरों की हलचल, तूफ़ान आदि डाँवाडोल नहीं कर पाते । इससे भी नीचे समुद्र की निधि-अमूल्य मोती आदि-पड़े हुए हैं। इस प्रकार पिता के लिए उस बालक को समुद्र के सभी रूप समझाने अनिवार्य होंगे। अन्त में वह कहेगा कि समुद्र वह जल-निधि है जिस में उपरोक्त सभी रूप एवं स्थितियाँ विद्यमान रहती हैं। ___इस तरह हमारी प्राचीन संस्कृति के जनक ऋषियों ने साधकों के शिष्य-वर्ग की ज्ञान-पिपासा को शान्त करने का प्रयास करते हुए सनातन 'सत्य'और इसकी विशेष प्रत्यक्ष चेष्ठाओं की अोर अनुरोध-पूर्ण संकेत किया । 'माण्डूक्योपनिषद्' में महर्षियों ने हमें 'ब्रह्म' अथवा 'आत्मा' को इसके विविध रूपों द्वारा समझाने की चेष्ठा की है । इस प्रवचन के लिए शिष्य को तैयार करने के विचार से ही कीत्तिमान ऋषि ने कहा- इस आत्मा के चार 'पाद' हैं।
___ इससे यह न समझा जाय कि अविभक्त तत्व के भाग किये गये हैं । अपने भाष्य में श्री शंकराचार्य ने विशेष रूप से यह कहा है कि यहाँ पाद' शब्द का अर्थ 'अंग' न किया जाय, जैसे गाय की चार टाँगें। यदि हम शब्द-कोष के इस अर्थ को मान लें तो समस्त वेदान्त-शास्त्र के मौलिक स्वरूप तथा सिद्धान्तों में अव्यवस्था दिखायी देगी । यदि हम यह मान बैठे कि "(इसके) चार अंग हैं" तो उस एकरूप 'सत्य' में स्वगत-भेद पाया जायेगा। जिसमें स्वगत-भेद पाया जाय वह (वस्तु) द्रव्य बनकर रह जायगी। इस तरह
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