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रूप से सब की उत्पत्ति होती है और इसी में सब लीन होते हैं ।
सुषुप्तावस्था में चेतना की स्थिति को वर्णन करते हुए ऋषियों ने एक और मंत्र बताया है । सम्भवतः आचार्य ने यह अनुभव किया कि साधारण व्यक्ति के लिए ममता से पृथक् होकर सुषुप्तावस्था को अनुभव करना श्रति दुष्कर कार्य है ।
जाग्रतावस्था में निज व्यक्तित्व को समझ लेना बहुत आसान है । एक सामान्य व्यक्ति स्वप्नावस्था से इतनी सुगमता से परिचित नहीं हो पाता; फिर भी वह तनिक सक्रिय होकर इस व्यक्तित्व को जान सकता है । उसके लिए सुषुप्तावस्था में 'अहंकार' को अनुभव करना अति कठिन है क्योंकि हम तो इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त की हुई वार्ता का ज्ञान पाने के अभ्यस्त हो चुके हैं ।
सुषुप्तावस्था में ज्ञानेन्द्रियाँ तथा विवेक क्रियमाण नहीं होते । जिस क्षण अपने इस संसार में हम रमण करते हैं, जहाँ हमारी कोई ज्ञानेन्द्रिय हमारे अनुभव के लिए गतिमान नहीं होती, हम सामान्यतः एक विचित्र अज्ञात एवं न जानने योग्य क्षेत्र में विचरते हुए प्रतीत होते हैं । इस तरह शिष्य पर अनुग्रह करके उपनिषदों के ऋषियों ने 'प्राज्ञ' की व्याख्या करने के उद्देश्य से एक और मंत्र दिया है ।
हम यह कह चुके हैं कि सुषुप्तावस्था में चेतना एक रूप होकर घनीभूत् हो जाती है । उस समय यह केवल एक भाव को दीप्तिमान करती है और वह है - " मैं नहीं जानता ।” वेदान्त में इस स्थिति को 'विद्या' कहते हैं; इसलिए उन्होंने अपनी भाषा में यह कहा कि गहरी निद्रा में आत्मा 'अविद्या' अर्थात् 'कारण' शरीर से निज सम्पर्क स्थापित करता है ।
इस अवस्था में हमारी चेतन शक्ति एकत्र होकर सतत नकारात्मक स्थिति को आलोकित करती है । इसे 'सर्वेश्वर' कहा गया है क्योंकि यदि यह क्रियमाण शक्ति न होती तो हम सब चेतनायुक्त प्राणी न होते ।
उस शक्ति को 'सर्वज्ञ' भी कहा गया है क्योंकि यदि यह जाज्वल्यमान जीवन स्फुलिंग हमारी 'जाग्रत', 'स्वप्न' और 'सुषुप्त' अवस्थाओं को आलोकित
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