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( १०१ ) नहीं कर पाते । हमारे लिए तो 'जीवन' का अर्थ जाग्रतावस्था के अनुभवों की प्राप्ति है। जीवन भर तीनों (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्त) अवस्थाओं को निरन्तर अनुभव करते रहने पर भी हम अन्य दो क्रिया-क्षेत्रों तथा उनके अनुभवों को विस्मरण कर देते हैं, केवल जाग्रत अनुभवों को ही हम स्मरण रखते हैं । जीवन की समीक्षा तथा विश्लेषण करने में हम ऐसी ही धारणा रखते हैं । इस कारण हम श्री गौड़पाद के इस तथ्य को समझ नहीं पाते
और कई बार तो हम जीवन के सुखमय मूल्यांकन में फंस कर इस विचार के प्रति विद्रोह की भावना भी कर देते हैं।
इस विचार के समर्थन में श्री गौड़पाद ने कई युक्तियाँ दी हैं। उन्होंने सहृदयता का परिचय देते हुए इस सत्य को प्रकट किया है । एक न्यायाचार्य दूसरों को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किसी बात को नहीं कहता और न ही वह सर्व-साधारण के जीवन का मूल्यांकन करने के लिए कोई युक्ति देता है । वह अपने युग में जीवन के प्रति पायी जाने वाली मिथ्या भावना के पक्ष में कुछ नहीं कहता । उसका एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह आत्म-तत्व का अनुभव करके दूसरों को उससे परिचित करे। यह सिद्धान्त चाहे कितना अमान्य हो और युग विशेष में यह सत्य कितना ही असाधारण क्यों न प्रतीत होता हो, वह (दर्शनाचार्य) किसी औपचारिक ढंग को नहीं अपनाता । वह तो अपने निष्कर्ष एवं अनुभव संसार के समक्ष रख देता है । इस बात को स्पष्ट करने से अद्वैतवादियों का दृढता तथा निर्भीकता से पूर्ण यह सिद्धान्त पक्के से पक्के द्वैतवादियों की भी समझ में आ जायेगा।
संसार के दर्शन-ग्रन्थों में जीवन की इतने विस्तार से और कहीं व्याख्या नहीं की गयी है जितनी 'माण्डूक्योपनिषद्' में । मानव इतिहास में यह विचार सभी युगों में प्राता रहा है । समय समय पर संसार के दार्शनिक तथा विचारज्ञ किसी न किसी प्रकार इस विचार को अपने सामने रखते आये हैं; किन्तु वे इसे स्पष्ट न कर पाए । यह शंका जाग्रतावस्था की सदाशयता के प्रति है।
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