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( १०३ ) सिद्धान्त की पुष्टि में उन विद्वानों के सिद्धान्तों की सहायता ली है।
हिन्दु धर्म-शास्त्रों में यह एक पवित्र परम्परा है । यहाँ दर्शन-सम्बन्धी तथ्यों को किसी विश्वस्त आचार्य-विशेष के वैयक्तिक विचारों की पृष्ठभमि पर प्रकट नहीं किया जाता । आज कल के नैयायिक तो व्यक्तिगत अधिकार से अपने सिद्धान्तों का प्रकाश करते हैं। बहुत से विद्वान् 'अपने' अनुभवों की आधार-शिला पर जिन सिद्धान्तों का निर्माण करते हैं, हिन्दुओं के विचार में यह विधि किसो प्रकार मान्य नहीं है। किसी सिद्धान्त को इस कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उससे सम्बन्धित तथ्यों को नींव किसी विशेष मनुष्य के केवल अपने अनुभव हैं। यहाँ हम यह कह सकते हैं कि यदि श्री गौड़पाद के अपने अनुभव संसार के मिथ्यात्व पर स्थित हैं तो एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह अनुभूत संसार यथार्थ है । अतः ऋषि के अपने अनुभव को ही पर्याप्त न समझते हुए हमें इस विचार की पुष्टि में अन्य महान विचारज्ञों के मत भी प्रस्तुत करने होंगे ।
यदि हम किसी एक का अनुभव मान्य समझते हैं तो दूसरे की अनुभूति को भी हमें उसी मात्रा में मानना होगा । यदि हम किसी पुरुष-विशेष के विचार को स्वीकार करते हैं तो हमें इसका कारण स्पष्ट शब्दों में बताना होगा। इस तरह शास्त्रों में भी हम देखते हैं कि समय समय पर आचार्य अपने शिष्यों को यह परामर्श दिया करते थे कि-''यह बात मुझे मेरे गुरु ने बतायी है । गुरु जी ने मुझे कहा था कि इसे उन्होंने अपने प्राचार्य से सुना था ।” ___ इस प्रकार हम केवल उन घोषणाओं को शास्त्रीय (अगम) मानते हैं जो हम तक गुरु-शिष्य परम्परा में पहुँची हैं। इस परम्परा के अनुसार श्री गौड़पाद ने प्रथम मंत्र में कहा है कि प्राचीन विद्वान् निश्चय से स्वप्न-जगत को मिथ्या कहते आये हैं । यह घोषणा तर्क एवं युक्ति पर आधारित है। प्रस्तुत मंत्र में जो कारण बताये गये हैं वे स्वतः स्वीकार्य हैं।
अन्तः स्थानातु-भीतर पाया जाने वाला । स्वप्न-जगत को मिथ्या मानने के लिए जो कारण प्राचीन विद्वानों द्वारा दिये जाते हैं उनमें एक
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