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उसी क्षण वह उन कारणों को प्रत्यक्ष रूप से अपने समक्ष रखने के लिए प्रयत्नशील रहेगा और जब तक उसे उपरोक्त फल प्राप्त नहीं होता तब तक वे कारण उस के मानसिक क्षेत्र में मुख्य रूप से क्रियमाण होते रहेंगे।
___ परिश्रम करने, खाने-कमाने तथा प्राप्त करने के लिए हमें दो भाव प्रेरित करते रहते हैं । वे हैं ‘भोजन का ज्ञान' और 'तुष्टि का ज्ञान' । हम भोजन प्राप्त करने के लिए घोर प्रयत्न इस कारण करते हैं कि इसके द्वारा हमें सन्तोष मिलेगा । हमारी सब प्रकार की इच्छाओं और इच्छा द्वारा चालित क्रियानों में यह नियम पूर्ण रूप से लागू होता है । इससे यह बात स्पष्ट हो गयी कि (किसी वस्तु के) ज्ञान के अनुपात से ही (उस वस्तु की) स्मृति होती है । यदि हमें किसी वस्तु का ज्ञान ही नहीं तो भला हम उसे किस प्रकार स्मरण रख सकते हैं ? हमारा ज्ञान ही हमारी स्मृति की उपाधि ग्रहण करता है।
अनिश्चितः यथा रज्जुरन्धकारे विकल्पिता । सर्पधारादिभिर्भावस्तदात्मा विकल्पितः ॥१७॥
जिस तरह अन्धेरे में रस्सी को, उसके वास्तविक स्वरूप को न समझते हुए, साँप, जल-धारा आदि जाना जाता है वैसे ही 'आत्मा' की भी विविध प्रकार से कल्पना की जाती है ।
यह कहा जा चुका है कि 'जीव-भाव' की कल्पना करने से ही अन्य विचार एवं भावों की उत्पत्ति होती है। तो फिर यह जोव-भावना किस कारण होती है ? इस प्रश्न का उत्तर एक उदाहरण द्वारा दिया जाता है जो समचे वेदान्त-शास्त्र में सुविख्यात है। अन्धकार में जब हम रस्सी को समझ नहीं पाते तो हमे इससे सर्प का मिथ्याभास होता है। दिखायी देने वाले सर्प के आकार आदि की भावना केवल हमारे मन द्वारा कल्पित की जाती है और वह सर्प-दर्शन वस्तुतः उस रस्सी के यथार्थ-स्वरूप में आरोपमात्र है । एक व्यक्ति इसे साँप समझता है, दूसरा एक छड़ी, तीसरा जल की रेखा
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