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अवस्थाओं में अनेक प्रकार से क्रियमाण होता है और ऐसा प्रतीत होता है कि इसे अलग-अलग तीन प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं। इस बात की फिर व्याख्या की जायेगी कि यह सम-भाजक तत्व क्या है । उस मंत्र को समझाते हुए हम इस पर पूरा प्रकाश डालेंगे।
दक्षिणाक्षिमुखे विश्वो मनस्यन्तस्तुतैजसः ।
आकाशे च ह दि प्राज्ञस्त्रिधा देहे व्यवस्थितः ॥ २॥ 'विश्व' दाई अाँख से क्रियमाण होता है, 'तेजस' मन से और 'प्राज्ञ' हृदय-स्थान से; इस तरह यह धारणा की जाती है कि एक ( प्रात्मा ) ही तीन स्पष्ट रूपों में तीन प्रधान स्तरों से गतिमान होता है।
'माण्डूक्योपनिषद' में इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता कि तीन चेतनावस्थाओं में त्रिविध-अहंकार क्रियाशील होता है। कारिका में श्री गौड़पाद ने हमें 'विश्व,' 'तेजस' और 'प्रज्ञा' के समीकरण तथा उत्पत्ति-स्थान से परिचित कराया है और यह बात ठीक भी है । 'कारिका' को शास्त्र नहीं कहा जा सकता। 'शास्त्र' में न्याय-दर्शन के सभी पहलुओं का वैज्ञानिक ढंग से विवेचन किया जाता है किन्तु 'कारिका' में इसके किसी एक अंग का विस्तृत वर्णन होता है। इसलिए 'कारिका' को सामान्य ग्रन्थ कहने के स्थान में एक 'उपदेश-ग्रन्थ' कहना उपयुक्त है। इस कारण श्री गौड़पाद ने साधक को आध्यात्मिक पथ पर चलने तथा अभ्यास करने फा विस्तार से परामर्श दिया है। यह बात दूसरे अध्यायों में भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है । 'कारिका' के प्रत्येक अध्याय के अन्त म आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धित पूरी हिदायतें पायी जाती हैं।
एक टीकाकार होने के नाते श्री गौड़पाद ने एक व्यक्ति के त्रिविधअहंकार के क्रिया-क्षेत्र को विशेष ढंग से वर्णन किया है। इसे जानना ध्यान, विश्लेषण और वास्तविक ज्ञान में सहायक होता है । जब हम यह पढ़ते हैं कि जानतावस्था के अहंकार ( विश्व ) का निवास स्थान दाईं आँख है तो हमें
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