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( १३६ )
__ साधक को उसका गुम चाहे कोई भाव समझाए उसका एकमात्र उद्देश्य 'आत्मा' को अनुभव करना है परन्तु इस बात को समझ लेने के बाद वह अपने संकीर्ण विचार में इतना लीन हो जाता है कि इस अन्ध-विश्वास के कारण वह 'सत्य' को नहीं जान पाता । इस प्रकार वह न केवल इस वास्तविक तत्त्व को अनुभव करता है बल्कि अपने मार्ग पर चलते-चलते उस 'सत्य' की आत्मानुभति भी कर लेता है।
___ संमार में इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। इस तथ्य के समर्थन में कई ऐतिहासिक प्रमाण दिये जा सकते हैं। एक समय वह था जब मनुष्य विविध देवी-देवतामों में विश्वास करते और अपने युग के दृष्टिकोण को अपन ते थे । आजकल भी हिमालय की सुरम्य घाटियों में कई ऐसे दूरस्थ गाँव है जिनके निवासी ऐसे देवी-देवताओं की उपासना करते हैं जिनका पौराणिक अथवा बौद्ध ग्रन्थों में कोई उल्लेख नहीं । ये ग्रामीण अपने देवीदेवताओं से भयभीत रहते हैं और जब वे इन 'स्थानीय' दैवी शक्तियों से वर्षा अथवा धूप की याचना करते हैं, इनको इच्छाएँ फलीभूत हो जाती हैं ।
यह बात मान्य है कि मनुष्य निरन्तर एक विचार का श्रद्धा-पूर्वक अनुकरण करने से पाश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर सकता है। "जैसी धारणा, वैसी अनुभूति' यह जीवन का एक अटल नियम है । ___ हम व्यक्तिगत रूप से निर्माण अथवा विनाश की क्षमता रखते हैं । शुद्ध, तर्क-युक्त तथा प्रबल विचारों को वृद्धि देते हुए हम बड़ी मात्रा में शान्ति तथा स्थिरता प्राप्त कर सकते हैं। इसके विपरीत मिथ्या एवं आदर्शमात्र भावों को निरन्तर बढ़ाते रहने से हम अपनी कुवासनाओं को प्रोत्साहन दे सकते हैं यद्यपि बाद में हमें इन की अरुचिकर प्रतिक्रिया को भी भोगना पड़ता है।
प्रस्तुत मंत्र में जिस विवेक-पूर्ण सत्य का दिग्दर्शन कराया गया है वह उपरोक्त सभी सिद्धान्तों को आलोकित करने वाला देवी स्फुलिंग है । अपने मन की वृत्ति के अनुकूल भावों पर मनन करते रहने से हम आत्मा में अनेक
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