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भारतवर्ष के विचारकों का एक समुदाय स्वप्न की यथार्थता में विश्वास रखता है । इनके मत में स्वप्न-द्रष्टा वास्तव में स्वप्न देखता है । इनकी यह धारणा है कि तांत्रिक चमत्कारों के सदृश स्वप्न भी उस क्षण तक अस्तित्व रखते हैं जब तक स्वप्न-द्रष्टा इन्हें अनुभव करता रहता है । जब तक हम किसी वस्तु का बोध रखते तथा उस के विषय में कोई धारणा करते हैं तब तक उस पदार्य का अस्तित्व बना रहता है, चाहे यह अनुभव-काल कितना ही कम क्यों न हो। ___इस विचार से यहाँ सूक्ष्म संसार की स्थूल-जगत् के साथ तुलना की गयी है।
इच्छामात्रं प्रभोः सृष्टिरितिसृष्टौ विनिश्चितः
कालात्प्रसूति भूतानां मन्यन्ते कालचिन्तकाः ॥८॥ 'सृष्टिवाद' के विद्वानों का यह मत है कि परमात्मा की इच्छा पर सृष्टि का होना निर्भर है। 'काल' की वास्तविकता में विश्वास रखने वाले अन्य व्यक्ति इस विचार में आस्था रखते हैं कि सब पदार्थों की उत्पत्ति काल से हुई।
उस समय के सष्टि-सम्बन्धी दो अन्य सिद्धान्तों का संक्षेप में वर्णन करते हुए टीकाकार ने कहा है कि परमात्मा के दृढ़ संकल्प से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है । दूसरे विचारक 'काल-तत्त्व' को ही सभी नाम-रूप पदार्थों का स्रष्टा समझते हैं क्योंकि ये 'काल' पर ही आश्रित रहते हैं।
दर्शन के स्तरीय भावों को यहाँ एक साथ रखकर श्री गौड़पाद ने अन्त में इन सिद्धान्तों को निर्मूल सिद्ध किया। इसके परिणामस्वरूप ऋषि ने विशुद्ध वेदान्त के महत्व का स्पष्टीकरण करने का प्रयत्न किया। विद्यार्थी के मन बद्धि में वेदान्त को कूट कूट कर भरने का यही एकमात्र सफल साधन है । आने वाले मंत्र में यह बताया जायेगा कि श्री गौड़पाद ने इस बात को कितने चातुर्य से स्पष्ट किया ।
भोगार्थं सृष्टिरित्यन्ये क्रीडार्थमिति चापरे । देवस्यैष स्वभावोऽयमाप्तकामस्य का स्पृहा ॥६॥
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