Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 210
________________ २०८] जीव और कर्म-विचार। करना, भोगोपमोग संपदामें विष्ट करना सो अन्तराय फर्म है। दानान्तरायकर्म-मुनियोंको दान करने में :विघ्न फरना, धर्म, तीर्थके दान कार्य में विघ्न करना, जिनायतन और सप्तक्षेत्रमें दान फरते हुए रोकना, मंदिरका द्रव्य जो तीर्थयात्रा-रथोत्सव जीर्णो. द्धार प्रतिष्ठा और नित्य पूजनके लिये रखा है उसका भक्षण करना, तार्थ के प्रबंधक बनकर तीर्थका द्रव्य खाना आवश्यक धर्म कार्य बतलाकर चंदा एकत्रित करना और उसको खा जाना, पैसा कमानेके लिये नेता धनता सो सर दानात्तरायकर्मके बंधक कारण हैं। ___ भोगातराय-दूसरोंके भोग पदार्थों को देखकर लालायित होना भोगोंके सेवन करने में विघ्न करना । नगर दाह करना, दूस. रोशो खाते-पीते फले फले देख कर उनको हानि पहंचानेका इगदा परना, सो भोगांतराय कर्मवधके कारण है। उपभोगांतराय-दूसरोंके उपभोगोंके सेवन करने में विघ्न फरना दूसरोंकी स्त्रीको ताकना । अन्नपानका निरोध करना, पींजरे में पक्षियोंको रखना लो सब उपभोगांतराय है। वीर्यान्तराय-व्रत तप आदिके धारण करने में शक्ति होनेपर भो अपनी असमर्थता प्रकट करना दूसरोंके व्रत भंग करना, इन्द्रि. थोंका छेद करना, विधवा विवाह कराना, भोगविलालोंमें मन होना । धार्मिक आचरणोंको ढोंग बतलाना, पशुओंके लिंगको पाटना, भोगोंकी (विषय कषाय ) लालसासे मन्न होकर अनुभ. घानंद प्रकट करना सो घीर्यान्तराय कर्मबंधके कारण हैं।

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