Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 222
________________ २२०] जीव और धर्म-विचार । वाहता है उनसे प्रतिष्ठा धन तथा मौजमजा। कहता है कि धर्म करो और उपदेश देता है ( मलिनवासनाकी भावना मनमें रख. कर ) कि इंद्रियोंको पुष्ट किए बिना शरीरमें कुवत नहीं होगी और उसके बिना धर्म नहीं होगा। कहता है कि समाजकी संख्या घटी और इशारा करता है मिथ्यादृष्टि मद्य मास भक्षण करनेवालों के साथ भोजन पान करनेको। कहता है देवकी पूजा करो परन्तु एकातमे बतलाता है कि ये सब ढोंग है। कहता है कि देवको पहिवानो परन्तु दिगंबर श्वेतावर या अन्य समस्त देवोंकी विनय करनेके कार्य करता है । ऐर लेख लिखता है जिससे देवकी 'परीक्षा न होसके । फहता है मैं जंनी हू परंतु देव गुरु और शास्त्रको मानता ही नहीं । वहता है मैं जैनियोंश पडित (मंने जैनियोंके धर्मकी विद्या सोखनेके लिए और धर्मकी सेवा करनेके लिए हजागे काया समाजके दान धर्मके खाए ) और मानता नहीं है जिनागम । तथा जिनागमकी नय निक्षेप प्रमाण कोटिको प्रमाण नहीं मानता है आगमको ही तोड़कर आगमकं विरुद्ध मलिन कार्योको आगममें प्रवेश करा देना चाहता है सत्यको नष्ट कर में धर्म बतलाना चाहता है, कोई जातिपाति तोड़ने में समुन्नति बतलाता है और इसके द्वारा धर्म कर्म एव पवित्र आचरणोंको नष्ट करना चाहता है। कोई स्वराज्यप्राप्तिका प्रलोभन देकर खादी पहरनेमे धर्म बतलाता है राजद्रोह करनेसें धर्म बतलाता है कैद नानेमें धर्म बतलाता है आत्महत्या और पर हत्यामें धर्म बतला. ता है कोई कहता है कि हमारे हृदयमें दया है, हम सबको एक

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