Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 221
________________ जीव और कर्म- विचार | [Re होते हैं पुन्य विना श्रावकाचारको आशाको पालन करनेके भाव नहीं होते हैं बल्कि श्रावकाचारकी आज्ञाको मलिन और दुष्ट बनानेके भाव होजाते है । पुन्यके बिना रसोई की शुद्धि-चौकाकी शुद्धि अन्नपानी शुद्धि पिडशुद्धि सस्कार शुद्धि और भात्रोंकी शुद्धि नहीं होती है । इसलिए आचार्यो की जगतके भलाई के लिए एक यही आज्ञा है कि भव्यजोवो अपना सुख चाहते हो तो पुण्य संपादन करो। जिनपूजन करो। सत्पात्रमें दानदो स्वाध्याय करो । उपवास करो अपनप करो । कुशिक्षाको एकदम त्याग करो कुसंगतिको छोड़ो। मिध्यात्व को छोड़ो। जिनागमकी आज्ञा सर्वच प्रभुकी आज्ञा समझकर एक अक्षरकी भी शंका मन करो । अपने ज्ञान और बुद्धिमें पदार्थों के समझने की ताकत न हो तो मोह जाल में पड़कर आगमको फलकित करनेका उद्योग मत करो अपनी आत्मा पर सबसे प्रथम दया पालो जो स्व ( अपनी आत्मा की) दिसाका त्याग होगा तो संसारके समस्त जीवों की हिंसाका त्याग होजायगा जो स्वआत्माकी ( अपनी आत्माकी ) दया पालनकी जायगो तो संसारके प्राणी मात्रको दया पालन हो जायगी। परन्तु यह पापी जीवड़ा दूसरोंके उपकार भावोंको दिखाता हुआ (मान घडाई या स्वार्थ के लिए ) दूसरों की दया करने का ढोंग खूब पीटता है परन्तु अपनो आत्माकी दया व मात्र नहीं करना है । मायाचारसे दुनियांको ठगता है । कहता है कि स्त्रियों पर दया करो और भावना रखता है उनके साथ व्यभिचार सेवन करने की। कहता है कि अपनी उन्नति करो और {

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