Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 260
________________ २५८] , जीव और कर्म-विवार । आशंका न रही हो। मनुष्य भव बार बार प्राप्त नहीं होता है। कठिनतासे प्राप्त हुवा है। फिर भी पुण्ययोगसे जिनागमका उप. देश सिला सत्संगति व सद्धर्मका सहयोग मिला। सद्बुद्धि प्राप्त हुई। फिर भी विचार नहीं करता है। हा!, पापोंमें ही धर्म मान कर पापोंके कार्यमें चटपट दौड़ता है। जवानीकी अंधतामें विचारहीन होता है। माता बहिन तकका बिचार नहीं करता है। सबके पवित्र शीलको नष्ट कर पापमार्गके बढ़ानेमें खुश होता है। व्यभिचारमें धर्म घतलाता है यह तेरा कैसा विचार ? यह तेरह जैसा ज्ञान ? यह तेरो कैसी शिक्षा ? जिस भारतके गौरवको प्रथम अनेक राजा महाराजा और पुण्य पुरुषोंने शोलधर्मकी रक्षा फर बढ़ाया उसको तु कुशिक्षाके प्रभावसे जवानीकी अधतामें खोता है नष्ट करता है। ___ हे भव्य ! अब भी चेत ! व्यर्थ ही पापकर्मके विचारों के द्वारा अपना और असंख्य भोले संसारीजीवोंका हित नष्ट मत कर सन्मार्गका विचार कर, जिनागमकी पवित्र आज्ञाका विचार कर, विषयों की पुतलीमें मग्न होकर व्यभिचार (विधवा विवाह ) का उपदेश मत दे। ___ हे भव्यजीव ! धनमदों उन्मत्त होकर पापके कार्य करनेमें विचार शक्तिको नष्ट न कर। तारा और चंद्रके समान चमकने घाली यह विभूति क्षणमात्रमें नष्ट हो जायगी और देखते देखते विलीन हो जायगी। और तू होलीका नाथू बनकर अपनेको तथा जगतके भोले अज्ञानी प्राणियोंको कूपमें मत 'ढकेल।

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