Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 247
________________ जीव सौ कर्म-विवार । ॥ २४५ सर्वात प्रकृति वनावरण केवलदर्शनावरण निद्रा निद्रा प्रचाप्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धि ४ ( अनवा * ४ नुवान प्रानानुचोकी मान माया होम.) पाप १२ २० कृति के मस्तगुणांका घात करनी है जिस प्रकार गमि नमन वनको प्रशनित कर देती है उलोप्रकार आना मनहर गुगको आवदा करनेगली उक्त ग्रीस प्रकृति है। देशनोक कु १ fen २ _F-श्रु 1 ३ -अवधि-मन परोय ज्ञान 9 २ ३ वरण ४--अधिदर्शनावरण ७ दान-लाभ भोग उपभोग - पाप अन १२ मानो मान लाया भ ४ ५ 7 २ ३ ४ " ६ ७ २६ ननस्य (दाहन शक भय जुगुप्सा पुवेद खार्इ नपुंसकनेद ) २५ इन प्रकृ'नयाँ अनुभाग देशघाना है । परन्तु जिन उक - ५ प्रकृ नेत्रों का उत्कृष्ट अनुभागवध होना है। चिन इनका परिणमन सर्वधानी के समान ही होना है। इसलिये उपयुक्त प्रकृतियों से देवघाती वा सर्दधानी दोनों प्रकार भी कह सके हैं। अनुभाग के रस विशेषता की अपेक्षा इनमें देशवातित्व वा सर्व घातित्न दोनों प्रकार ही होसके है। अपना जघन्यं या विन्मध्येम अनुभागको देशवानि समझना नांदिये 1 मधवा सर्वधाति प्रकृतियोंके साहचर्यके बिना जिन प्रकृति

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