Book Title: Jiva aur Karmvichar
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 268
________________ २६६ । जीव और कर्म-विवार । चलवान है जगतके जीवोंको अपने स्वाधीनकर मनमाना दुख देते हैं । जो स्वतंत्र होना चाहते हो, जो जन्म मरणके दुग्वोंसे छूटना चाहते हो, जो सुख शातिको प्राप्त होना चाहते हो तो कर्मोके नाश करनेका उद्याग करो । कर्मो का नाश निर्बंध अवस्थासे प्राप्त होना है इसीलिये गुरुओं को तरण तारण दुख निवारण करनेवाला, जन्म मरणको उच्छेद करनेवाला, परम सुखको प्रदान करनेवाला माना हैं । गुरु ही अकारण बंधु है, मसार समुद्रके जहाज है; विपदा दू करनेवाले हैं और दुखोंसे बचानेवाले हैं । को ६ शरणभूत गुरु ही माता हैं पिता हैं वधु हे रक्षकलोकोतम है परम मंगलके प्रदान करनेवाले मंगल मय है परमपुरुष हैं योगी है, योगीश्वर है, काम क्राध मान माया लोभ ईर्षा द्वेष रागमोह छल प्रपचको जीतनेवाले है । गुरु ही त्रिकालज्ञानी हूँ भवदधिले तारने वाले हैं। सफल दर्शी हैं । सकल हितैषी हैं। सबके कल्याण करने वाले हैं, सबको सन्मार्ग बतलानेवाले हैं, निःस्वार्थ बुद्धिसे निराकांक्षित होकर सबके दुःखोंको मिटाने वाले हैं, सत्र जीवोंका परोपकार करनेवाले हैं, शत्रु और मित्र दोनों को एक समान जाननेवाले परम वीतराग हैं, जिनको अपनी निदामें क्रोध नहीं है, और अपनी कीर्तिमान प्रतिष्ठा में हर्ष नहीं हैं, इस प्रकार क्षमा सत्य शौध त्याग ब्रह्मचर्य आदि उत्कृष्ट गुणोंके धारण करने वाले हैं। इसलिये मोक्षमार्गका बिकाश गुरुसे ही होता है । वे ही धीर

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