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III कारण ( निमित्तको गौणता मुख्यता)
५. कर्म व जीवगत कारणकार्य भावकी प्रधानता
ण च एवं तहाणुवलं भादो।तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्याजतं वढि हाणि तरतमभावकारणं तमावरण मिदि सिद्धा-इस ज्ञानप्रमाणका वृद्धि और हानिके द्वारा जो तरतमभाव होता है, वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञानप्रमाणमें वृद्धि और हानिसे होनेवाले तरतमभावको निष्कारण मान लेनेपर वृद्धि और हानिरूप कार्यका ही अभाव हो जाता है। और ऐसी स्थितिमें ज्ञानके एकरूपसे रहनेका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि एकरूप ज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती है। इसलिए ये तरतमता सकारण होनी चाहिए। उसमें जो हानि वृद्धिके तरतम भावका कारण है वह
आवरण कर्म है। क. पा.४/३.२२/६२६/१/ह एगहिदिबंधकालो सव्वेसिं जीवाणं समाणपरिणामो किण्ण होदि । ण, अंतरंगकारणभेदेण सरिसत्ताणुववत्तीदो। एगजीवस्स सव्वकालमेगपमाणद्धाएट्ठिदिबंधो किण्ण होदि । ण, अंतरंगकारणेसु दव्वादिसंबंधेण परियत्तमाणस्स एगम्मि चेव अंतरंगकारणे सव्यकालमवट्ठाणाभावादो।प्रश्न-सब जीवोंके एक स्थितिबन्धका काल समान परिणामवाला क्यों नहीं होता ' उत्तरनहीं, क्योंकि अन्तरंगकारणमें भेद होनेसे उसमें समानता नहीं बन सकती। प्रश्न-एक ही जीवके सर्वदा स्थितिबन्ध एक समान कालवाला क्यों नहीं होता है। उत्तर-नहीं; क्योंकि, यह जीव अन्तरंग कारणोंमें द्रव्यादिके सम्बन्धसे परिवर्तन करता रहता है, अतः उसका एक ही अन्तरंग कारणमें सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है। क.पा. ४/१,२२/६४४/२४/५ सो केण जणिदो। अणंताणुबंधीणमुदएण।
अणं ताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे। परिणामपचएण |प्रश्न-बह ( सासादन परिणाम) किस कारणसे उत्पन्न होता है। उत्तर-- अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उदयसे होता है। प्रश्न-अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उदय किस कारणसे होता है। उत्तर-परिणाम विशेषके कारणसे होता है। ३. जीवकी अवस्थाओंमें कम
पप्र/मू./१/६६,७८ इस पंगु आत्माको कर्म ही तीनों लोकोंमें भ्रमण कराता है।६६। कर्म बलवान हैं, बहुत है, विनाश करनेको अशक्य है, चिकने है, भारी है और वज्रके समान है ।८।। रा.वा./१/१५/१३/६१/१५ चक्षुदर्शनावरण और बीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मके अवष्टम्भ(बल)से चक्षुदर्शनकी शक्ति
उत्पन्न होती है। रा.वा/५/२४/६/१८८/२१ सुख दुखकी उत्पत्तिमें कर्म बलाधान हेतु हैं। आप्त प./११४-११५/२४६-२४७ कर्म जीवको परतन्त्र करनेवाले हैं।
(रा.वा/५/२४/६/४८८/२०) ( गो जी/जी.प्र/२४४/५०८/२) ध. १/१,१,३३/२३४/३ कर्मोकी विचित्रतासे ही जीव प्रदेशोंके संघटनका
विच्छेद व बन्धन होता है। ध.१/१,१,३३/२४२/८ नाम कर्मोदयको वशवतितासे इन्द्रियाँ उत्पन्न
होती हैं। स.सा/आ /१५७-१५६ कर्म मोक्षके हेतुका तिरोधान करनेवाला है। स सा /आ./२,४,३१,३२, क ३ इत्यादि ( इन सर्व स्थलोंपर आचार्यने
मोहकर्मकी बलवत्ता प्रगट की है) स.सा /आ./८६ जीवके लिए कर्म संयोग ऐसा ही है जैसा स्फटिकके
लिए तमालपत्र। त.सा./८/३३ ऊर्ध्व गमनके अतिरिक्त अन्यत्र गमनरूप क्रिया कर्म के
प्रतिधातसे तथा निज प्रयोगसे समझनी चाहिए। का अ/मू /२११ कर्म की कोई ऐसी शक्ति है कि इससे जीवका केवलज्ञान
स्वभाव नष्ट हो जाता है। द्र.सं /टो./१४/४४/१० जीव प्रदेशोंका विस्तार कर्माधीन है, स्वाभाविक
नहीं। स्या.म./१७/२३८/६ स्व ज्ञानावरणके क्षयोपशमविशेषके वशसे ज्ञानकी
निश्चित पदार्थो में प्रवृत्ति होती है। पं.ध./3/९०५,३२८,६८७,८७४,६२५ जीव विभावमे कर्मकी सामर्थ्य ही कारण है ।१०। आत्माकी शक्तिकी बाधक कर्मकी शक्ति है ।३२८। मिथ्यात्व कर्म ही सम्यक्त्वका प्रत्यनीक ( बाधक ) है ।६८७। दर्शनमोहके उपशमादि होनेपर ही सम्यक्त्व होता है और नहीं होनेपर
नहीं ही होता है ।८७४। कर्मकी शक्ति अचिन्त्य है ॥२५॥ स.सा./३१७/क १६८/पं. जयचन्द- जहाँ तक जीवकी निर्मलता है तहाँ
तक कर्म का जोर चलता है। स.सा./१७२)क११६/पं. जयचन्द--रागादि परिणाम अबुद्धि पूर्वक भी कर्मकी बलवत्तासे होते है। -दे० विभाव/३/१-(कर्म जीवका पराभव करते हैं)
रा.वा./२/२४/१/४८८।२१ तदात्मनोऽस्वतन्त्रीकरणे मूलकारणम् । वह
( कर्म ) आत्माको परतन्त्र करनेमें मूलकारण है। रा.वा./१/३/६/२३/१६ लोके हरिशालवृकभुजगादयो निसर्गतः क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तन्ते इत्युच्यन्ते न चासावाकस्मिकी कर्मनिमित्तत्वात् । लोकमें भी शेर, भेड़िया, चीता, साँप आदिमें शूरता-क्रूरता आहार आदि परोपदेशके बिना होनेसे यद्यपि नैसर्गिक कहलाते हैं; परन्तु वे आकस्मिक नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदयके । निमित्तसे उत्पन्न होते हैं। दे० विभाव/३/१ (जीवकी रागादिरूप परिणतिमें कर्म ही मूल
कारण है)। का.अ./सु./३१६ ण य को वि देदि लच्छी को वि जोवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ३१६ - न तो कोई देवी देवता आदि जीवको लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीवका उपकार या अपकार
करते हैं। 1.ध./उ./२०१ स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदया। अपने-अपने ज्ञानके घातमें अपने-अपने आवरणका उदय वास्तवमें मूलकारण है।
५. जीवकी एक अवस्थामें अनेक कर्म निमित्त होते हैं
४. कर्मकी बलवत्ताके उदाहरण स,सा./मू./१६१-१६३ ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रके
प्रतिबन्धक क्रमसे मिथ्यात्व, अज्ञान व कषाय नामके कर्म हैं।) भ.आ././१६१० असाताके उदयमें औषधियें भी सामर्थ्यहीन हैं। स.सि./१/२०/१०१/२ प्रबल श्रुतावरणके उदयसे श्रुतज्ञानका अभाव हो
जाता है।
रा.बा/१/१२/१३/६१/१५ इह चक्षुषा चक्षुर्दर्शनावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामावष्टम्भाइ अविभावितविशेषसामर्थ्येन किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोचनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते बालवत् । -चक्षुदर्शनावरण
और वीर्यान्तराय इन दो कर्मोके क्षयोपशमसे तथा साथ-साथ अंगोपांग नामकर्मके उदयसे होनेवाला सामान्य अवलोकन चक्षुदर्शन
कहलाता है। पं.ध/उ./२०१-२०२ सत्यं स्वावरणस्योच्चै मूलं हेतुर्यथोदयः । कर्मान्तरोदयापेक्षो नासिद्ध' कार्यकृयथा ।२०१। अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्युदयक्षतेः । तथा वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽनुदयादपि ।२०२१ -जैसे अपने-अपने घातमें अपने-अपने आवरणका उदय मूलकारण है वैसे ही वह ज्ञानावरण आदि दूसरे कम के उदयको अपेक्षा सहित कार्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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