Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 547
________________ नय “हे विदूषक, इधर आओ। तुम मनमें मान रहे होगे कि मैं रथ द्वारा मेले में जाऊँगा, किन्तु तुम नहीं जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता भी गया था " इस प्रकार यहाँ साधन या पुरुषका भेद होनेपर भी वे वैयाकरणी जन एक ही अर्थ का आदर करते हैं। उनका कहना है कि उपहास के प्रसंग में 'मन्य' धातुके प्रकृतिभूत होनेपर दूसरी धातुओंके उत्तमपुरुष के बदले मध्यम पुरुष हो जाता है, और मन्यति धातुको उत्तमपुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थका वाचक है। किन्तु उनका यह कहना भी उत्तम नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेसे तो 'मैं पका रहा हूँ', 'तू पकाता है' इत्यादि स्थलोंमें भी अस्मद् और युष्मत् साधनका अभेद होनेपर एकार्थपनेका प्रसंग होगा । ६. उपसर्ग व्यभिचार विषयक -- तिसी प्रकार वैयाकरणीजन 'संस्थान करता है', 'अवस्थान करता है' इत्यादि प्रयोगों में उपसर्गके भेद होनेपर भी अभिन्न अर्थ को पकड़ बैठे हैं। उनका कहना है कि उपसर्ग केवल धातुके अर्थका घोटन करनेवाले होते हैं मे किसी नवीन अर्थके वाचक नहीं है। उनका यह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो 'तिष्ठति' अर्थात् ठहरता है और 'प्रतिष्ठते' अर्थात् गमन करता है, इन दोनों प्रयोगों में भी एकार्थताका प्रसंग आता है। ७. इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं । (१) लकार या कृदन्तमें अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगोंमें कालादिके नानापनेकी कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूपसे इष्टकार्यकी सिद्धि हो जायेगी ।०३। काल आदिके भेदसे अर्थ भेद न माननेवालोको कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए । ७४| काल आदिका भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनको भिन्नार्थताका द्योतक है । ७५ ॥ 1 ५३९ ९. सर्व प्रयोगोंको दूषित बतानेसे तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है ? स.सि /१/१२/१४४/१ एवं प्रकार व्यवहारमन्यास्यं मन्यतेः बग्वार्थस्यान्यार्थेन संबन्धाभावात् लोकसमयविरोध इति चेत् विरुध्यता। उमिह मीमांस्यते न भैषज्यमातुरेच्छानुषति । यद्यपि व्यवहारमें ऐसे प्रयोग होते हैं, तथापि इस प्रकारके आहारको शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे अन्य अर्थका अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता। प्रश्न- इससे लोक समयका ( व्याकरण शास्त्रका) विरोध होता है। उत्तर--यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं है, क्योंकि यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगीको इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती । (रा. बा./१/३३/६/१८/२५) । ७. समभिरूढ नय निर्देश १. समभिरुद्ध नयके लक्षण २. अर्थ मेदसे शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग ) स.सि./१/२३/१४२/४ नानार्थ समधिरोहणात्सम भिरूडः। यतो नानार्थान्स तीर्थमाभिमुख्येन रुद्रः समभिरूद्धः। गौरित्ययं शब्दों वागादिष्वर्थेषु वर्तमानः पशावभिरूढः । - नाना अर्थोंका समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ नय कहलाता है । चु कि जो नाना अको 'सम' अर्थात् छोड़कर प्रधानतासे एक अर्थ में रूढ होता है। मह समभिरू नय है। उदाहरणार्थ गो' इस शब्दकी बचन, पृथिवी आदि ११ अर्थाने प्रवृति मानी जाती है, तो भी इस नयको अपेक्षा मह एक पशु विशेषके अर्थगे रूढ है (रा.वा./१/३१/१०/१८/२६) 1 Jain Education International III नैगम आदि सात नय निर्देश (खा.प. ५) (न.च.वृ./२१६) १ (न.. /श्रत / पृ.१८) (त.सा./१/४६): (का.अ./ यू./२०६)। रा.वा./४/४२/१७/२६१/१२ समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् (अभेद) । समभिरूढ नयमें घटनकिया परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही पटका निरूपण होता है । अर्थात् जो शब्द जिस पदार्थ के लिए रूढ कर दिया गया है, वह शब्द हर अवस्था में उस पदार्थका वाचक होता है। न. च. / श्रुत/पृ. १८ एकबारमष्टोपवासं कृत्वा मुक्तेऽपि तपोधनं रूढिप्रधानतया यावज्जीवमष्टोपवासीति व्यवहरन्ति स तु समभिरूढनय. । - एक बार आठ उपवास करके मुक्त हो जानेपर भी तपोधनको रूढिकी प्रधानता यावज्जीव अष्टोपवासी कहना समभिरूढ नय है । २. शब्दभेदसे अर्थभेद स.सि./१/१३ / ९४४/५ अथवा अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः राप्रेकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक । शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थ - भेवेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति नानार्थसमभिरोहणात्यमभिरूढः । इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छक्र., पूर्दारणात पुरन्दर इत्येवं सर्वत्र - - अथवा अर्थका ज्ञान करानेके लिए शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्दसे ज्ञान हो जाता है। इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थोका समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरू नय कहलाता है। जैसे इन्द्र, शक और पुरन्दर ये तीन शब्द होनेसे इनके अर्थ भी दोन है। क्योंकि व्युत्पत्तिकी अपेक्षा ऐश्वर्यवाद होनेसे इन्द्र, समर्थ होनेसे शक और नगरोंका दारण करनेसे पुरन्दर होता है । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए (रा.वा./१/३३/१०/२०/३०), (लो.मा.४/१/२३/रतो. ७६-०७/ २३) (../५८१४८) (.१ / १.१.१/६/४) (६/४१.४५ / १०६/१) (क.पा. १२/१३-१४/२००/२३१/६); (न.च.वृ./२१५); (न.च / श्रुत/पृ.१८); (स्यान /२०/२१४/१५:३९६/३ २१८/२८) । रा.वा./२/४२/१०/२६९/१६ समभिरुते वा नेमितिका शब्दस्यैकशब्दवाच्य एकः । =समभिरूढ नय चूँकि शब्द नैमित्तिक है अत. एक शब्दका वाच्य एक ही होता है । ३. वस्तुका निजस्वरूपमें रूढ रहना स.सि./१/३३/१४४/- अथवा यो यत्राभिरूढः स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात्समभिरूढ' । यथा क्व भवानास्ते । आत्मनीति । कुतः । वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्रवृत्तिः स्यात, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् । अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह यहाँ 'म्' अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ होनेके कारण समभिरूड़ नय कहलाता है । यथा-आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तुकी अन्य वस्तु वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्यकी अन्य में वृत्ति होती है, ऐसा माना जाये तो ज्ञानादिककी और रूपादिककी आकाशमें वृत्ति होने लगे। (रा.वा./१/३३/१०/१६/२) । २. यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं आ.प./१ परस्परेणाभिरुद्धाः समभिः शन्दभेदेऽयर्थभेदो नास्ति । शक्र इन्द्रः पुरन्दर इत्यादयः समभिरूढाः । =जो शब्द परस्परमें अभिरूड या प्रसिद्ध हैं ये समभिरूड हैं उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थ भेद नहीं होता । जैसे— शक्र, इन्द्र व पुरन्दर ये तीनों शब्द एक देवराज के लिए अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं । ( विशेष दे० मतिज्ञान / ३/४ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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