Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 536
________________ नय एवंभूत है जैसे कि समभिरूडकी अपेक्षा पुरन्दर और शचीपति ( इन शब्दो के अर्थ ) में भेद होनेपर भी नगरोका नाश न करने के समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्रके अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु एवं भूतकी अपेक्षा नगरोंका नाश करते समय ही इन्द्रको पुरन्दर नामसे कहा जा सकता है।) (अतएव एवंभूत से समभिनयका विषय अधिक है। ७. ( और अन्तिम एवंभूतका विषय सर्वत स्तोक है; क्योकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना सम्भव नहीं है | ) ( स्था, म. / २८/३१९/३०) ( रा. वा. हि./१/३३ / ४१३ ) ( और भी देखो आगे शीर्षक नं० १) | भ. १/१.१.२/१३/१९ विशेषार्थ ) वर्तमान समयवर्ती पर्यायकोविषय करना ऋजुसूत्रनय है, इसलिए जब तक द्रव्यगत भेदोंकी ही मुख्यता रहती है तबतक व्यवहारनय चलता है ( दे० नय / V/४,४,३ ), और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्रनयका प्रारम्भ होता है। शब्द समभिरूद और एवंभूत इन तीनों नयका विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है। परन्तु उनमे ऋजुमुत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दोकी मुख्यता है. इसलिए उनका विषय राजुसूत्र से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सुक्ष्मतम माना गया है अर्थात् क लिंग आदिसे भेद करनेवाला शब्दनय है । शब्दनयसे स्वीकृत ( समान) सिंग वचन आदि वाले शब्दों में व्युत्पतिभेद अर्थभेद करनेवाले समभिरूढनय हैं । और पर्यायशब्दको उस शब्द से ध्वनित होनेवाला क्रियाकाल में ही नायक मानने वाला एवंभूतनम समझाना चाहिए । इस तरह ये शब्दादिनय उस अजुसूत्रकी शाखा उपशाखा है । ५२८ ८. सातौंकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मताका उदाहरण घ. ७/२.१.४/१. १-६/२०-२१ नयागामभिप्याओं एत्थ उपपदे जहा - कंपि परं दठठूण य पावजणसमागमं करेमाणं । णेगमणएण भई रइओएस पुरिसो न्ति । १। वत्रहारस्सा दु वयणं जइया कोदंडकंगयहत्थो । भमइ मए मग्गंतो तइया सो होइ रहओ |२| उज्जुसुदस्सदु वयणं जइया इर ठाइदूण ठाणम्मि । आहणदि मए पावो तइया सो होइ रइओ | ३| सद्दणयस्स दु वयणं जइया पाणेहि मोइदो जन्तु तझ्या सो रहओ हिसावम्मेण संजुती व समभिरूढं णारयकम्मस्स बंधगो जझ्या । तहया सो णेरइओ णारयकम्मेण संजुत्तो |५| रिगई संपत्तो जझ्या अणुहवइ णारंयं दुक्खं । तझ्या सो मेरओ एवंभूदो ओ भगदि । ६। यहाँ ( नरक गतिके प्रकरणमें) नयोंका अभिप्राय बतलाते हैं । वह इस प्रकार है- १ किसी मनुष्यको पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनसे कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है |१| २ ( जब वह मनुष्य प्राणिवध करनेका विचार कर सामग्री संग्रह करता है तब वह संग्रहनयसे नारकी कहा जाता है ) । ३. व्यवहारनयका वचन इस प्रकार हैजब कोई मनुष्य हाथमें धनुष और भाग लेकर मृगको खोजनें भटकता फिरता है, तब वह नारकी कहलाता है |२| ४. ऋऋजुसूत्रनयका वचन इस प्रकार है-जस्थानपर बैठकर पापी मृगोंपर आघात करता है तब वह नारकी कहलाता है । ३१ ५. शब्दनयका वचन इस प्रकार है - जब जन्तु प्राणोंसे विमुक्त कर दिया जाता है, तभी वह आघात करनेवाला हिसा कर्मसे संयुक्त मनुष्य नारकी कहा जाता है |४| ६. समभिरूदनयका वचन इस प्रकार है-जब मनुष्य नारक (गति व आयु) कर्मका बन्धक होकर नारक कर्म से संयुक्त हो जाये तभी वह नारकी कहा जाये । ५। ७. जब वही मनुष्य नरकगतिको पहुँचकर नरकके दुःख अनुभव करने लगता है, तभी वह नारकी है, Jain Education International III नैगम आदि सात नय निर्देश ऐसा एवं भूतनय कहता है । ६। नोट - ( इसी प्रकार अन्य किसी भी विषयपर यथा योग्य रीतिसे ये सातो नय लागू की जा सकती हैं) । ९. शब्दादि तीन नयोंमें अन्तर 1 रा. मा./४/४२/१०/२६९/११ व्ययनपर्यायास्तु दनया द्विविधं वचन प्रकम्पयन्ति-अभेदेनाभिधानं भेदेन च यथा शब्दे पर्यायशब्दायोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेदः समभिरू वा प्रवृतिनिमित्तस्य वृत्तिनिमित्तस्य प घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानाय एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधा नाद भेदेनाभिधानम् । अथवा. अन्यथा द्वैविध्यम् एकस्मिन्नर्थे ऽनेकशब्दवृत्ति, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति । यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य एकः समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य एकः । एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एकः । १. वाचक शब्दकी अपेक्षा शब्दमय वस्तुको व्यंजनपर्यायोंको विषय करते हैं ( शब्दका विषय बनाते हैं) वे अभेद तथा भेद दो प्रकारके वचन प्रयोगको सामने लाते है ( दो प्रकारके वाचक शब्दोंका प्रयोग करते हैं।) शब्दनयने पर्यायवाची विभिन्न शब्दोंका प्रयोग होनेपर भी उसी अर्थ का कथन होता है अतः अभेद है। समभिरूडनयमें पटन क्रियामें परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घटका निरूपण होता है। एवंभूत प्रवृत्तिनिमित्तसे भिन्न हो अर्थका निरूपण होता है । २. वाच्य पदार्थ की अपेक्षा- अथमा एक अर्थ में अनेक शब्दोंकी प्रवृत्ति या प्रत्येक में स्वतन्त्र शब्दोंका प्रयोग, इस तरह भी दो प्रकार हैं । शब्दनयमें अनेक पर्यायवाची शब्दोंका वाच्य एक ही होता है । समभिरूढ में चूँकि शब्द नैमित्तिक है, अतः एक शब्दका वाच्य एक ही होता है। एवंभूत वर्तमान निमित्तको पकडता है। अतः उसके मतमें भी एक शब्दका वाच्य एक ही है । २. नेगमनयके भेद व लक्षण १. नैगमनय सामान्यके लक्षण १. निगम अर्थात् संकल्पयाही स.सि./१/३३ / १४१ / २ अनभिनिवृत्तार्थ संकल्पमात्रग्राही नैगमः । - अनिप्पन्न अर्थ में करप मात्रको ग्रहण करनेवाला नय मेगम है (रा. वा/ १/३३/२/१५/१३); ( श्लो. वा/४/१/३३/ श्लो, १७/२३०); (ह.पु./५८/४३); (त.सा./१/४४ ) 1 राना/१/२३/२/१६/१२ निर्णयन्ति तस्मिन्निति निगमनमात्र' वा निगम निगमे कुशसो भयो वा नेगमः। उसमें अर्थात् आत्मामें जो उत्पन्न हो या अवतारमात्र निगम कहलाता है । उस निगममें जो कुशल हो अर्थात् निगम या संकल्पको जो विषय करे उसे नैगम कहते हैं । = रतो. वा ४/२/३३ /तो. १०/२३० संकल्पो निगमस्तत्र भनोऽयं तत्प्रयोजनः। = नैगम शब्दको भव अर्थ या प्रयोजन अर्थ में तद्धितका अण प्रत्यय कर बनाया गया है । निगमका अर्थ संकल्प है, उस संकल्प में जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है । (आ.प./ १); (नि.सा./ता.वृ./१६) । का.अ./ / २०१ जो साहेदि अदीदं विरूवं भविस्सम च। संपडि कालागि सो पत्र गमो ओ | २०११ - जो नय अतीत. अनागत और वर्तमानको विकल्परूपसे साधता है वह नैगमनय है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648