Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 464
________________ द्रव्य ३. पदव्य विभाजन पुद्गलद्रव्यादिक अचेतन द्रव्य हैं । (ध. ३/१,२,१/२/२) (वसु.श्रा./२८) (पं. का/ता. वृ. ५६/१५) ('द्र, स./टो./अधि २ की चूलिका/७६/८) (न्या. दी/३/898/१२२)। पं. का /मू./१२४ आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु णस्थि जीवगुणा। तेर्सि अचेदणथं भणिदं जीवस्स चेदणदा ।१२४।-आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममे जीवके गुण नहीं हैं, उन्हें अचेतनपना कहा है । जीवको चेतनता है। अर्थात् छह द्रव्योमें पाँच अचेतन हैं और एक चेतन । (त. सू./११-४) (पं.का./त. प्र./१७) गो. जी:/मू./५६६/१०१२ गदिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे। धम्मतिये ण हि किरिया मुक्खा पुण साधगा होति ।१६६।गति स्थिति और अवगाहन ये तीन क्रिया जीव और पुद्गलके ही पाइये हैं । बहुरि धर्म अधर्म आकाशविषै ये क्रिया नाहीं हैं। बहुरि वे तीनों द्रव्य उन क्रियाओके केवल साधक है। पं. का./ता. वृ /२७/५/६ क्रियावन्तौ जीवपुद्गलौ धर्माधर्माकाशकाल द्रव्याणि पुननिष्क्रियाणि । जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रियावाद हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारो निष्क्रिय है । (पं.ध./ उ./१३३ ) दे. जीव/३/८ ( असर्वगत होनेके कारण जीव क्रियावान है; जैसे कि पृथिवी, जल आदि असर्वगत पदार्थ )। २. मूर्तामूर्त विभाग पं. का./मू./१७ आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा। मुत्तं पुग्गलदव्यं जोवो खलु चेदणो तेसु । आकाश, काल, जीव, धर्म, और अधर्म अमूर्त हैं। पुद्गलद्रव्य मूर्त है। (त. सू./१५) (वसु श्रा./२८) (द्र. सं./टो./अधि २ को चूलिका/७७/२) (पं. का./ता. वृ/२७/५६/१८)। घ, ३/१,२ १/२) पंक्ति नं.-तं च दव्वं दुविहं, जीवदव्वं अजीवदव्व चेदि ।२। जंतं अजीवदव्वं तं दुविहं, रुवि अजीबदव्वं अरूवि अजीवदव्वं चेदि । तत्थ जंतं रूविअजीवदवं."पुद्गला' रूपि अजीवदव्व शब्दादि ।। जंतं अरू वि अजीबदब्बं तं चउबिह, धम्मदवं, अधम्मदव्वं, आगासदव्व कालदव्य चेदि ।४। वह द्रव्य दो प्रकारका है---जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य। उनमेसे अजीवद्रव्य दो प्रकारका है-रूपी अजीवद्रव्य और अरूपी अजीवद्रव्य । तहाँ रूपी अजीवद्रव्य तो पुद्गल व शब्दादि है, तथा अरूपी अजीवद्रव्य चार प्रकारका है-धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य। (गो. जो /म् /५६३-५६४/१००८)। ४. एक अनेककी अपेक्षा विभाग रा.वा./५/६/६/४४५/२७ धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं च द्रव्यत एकैकमेव ।... एकमेवाकाशमिति न जीवपुद्गलवदेषां बहुत्वम्, नापि धर्मादिवत जीवपुद्गलानामेकद्रव्यत्वम् । = 'धर्म' और 'अधर्म' द्रव्यकी अपेक्षा एक ही है, इसी प्रकार आकाश भी एक ही है। जीव व पुद्गलोंकी भॉति इनके बहुत्वपना नही है। और न ही धर्मादिकी भाँति जीव व पुद्गलोके एक द्रव्यपना है। (द्र सं./टी./अधि २ की चूलिका/ ७७/६); (प.का./ता../२७/५७/६)। वसु.श्रा./३० धम्माधम्मागासा एगसरूवा पएसअविओगा। ववहारकाल पुग्गल-जीवा हु अणेयरूवा ते ॥३०॥ =धर्म, अधर्म और आवाश ये तीनों द्रव्य एक स्वरूप है अर्थात् अपने स्वरूपको बदलते नहीं, क्योकि इन तीनों द्रव्यों के प्रदेश परस्पर अवियुक्त हैं अर्थात् लोकाकाशमे व्याप्त है। व्यवहार काल, पुदगल और जीव ये तीन द्रव्य अनेक स्वरूप है, अर्थात् वे अनेक रूप धारण करते हैं। ३. क्रियावान् व भाववान् विभाग त. सू./५/७ निष्क्रियाणि च/७/ स. सि.1119/२७३/१२ अधिकृताना धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽ भ्युपगमे जीवपुद्गलाना सक्रियत्वमर्यादापन्नम् । = धर्माधर्मादिक निष्क्रिय है। अधिकृत धर्म अधर्म और आकाशद्रव्यको निष्क्रिय मान लेनेपर जीव और पुद्गल सक्रिय है यह बात अर्थापत्तिसे प्राप्त हो जाती है। (वसु. श्रा/३२) (द्र. सं/टो./अधि २ की चूलिका/७७) (प. का /ता. वृ./२७/५७/८)। प्र. सा./त. प्र./१२६ क्रियाभाववत्त्वेन केवल भाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेषः । तत्र भाववन्तौ क्रियावन्तौ च पुद्गलजीवौ परिणामादभेदसंघाताभ्यां चोल्पामानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववन्त्येव परिणामादेवोत्पद्यमानाव तिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चयः । तत्र परिणामलक्षणो भाव', परिस्पन्दलक्षणा किया। तत्र सर्वव्याणि परिणामस्वभावत्वात् भाववन्ति भवन्ति । पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावत्वात् ..क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात"क्रियावन्तश्च भवन्ति। -क्रिया व भाववान् तथा केत्रलभात्रवान्को अपेक्षा द्रव्योंके दो भेद हैं। तहाँ पुद्गल और जीव तो क्रिया व भाव दोनोंवाले है, क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात व भेद द्वारा दोनो प्रकारसे उनके उत्पाद, व्यय व स्थिति होती हैं और शेष द्रव्य केवल भाववाले ही हैं क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनके उत्पादादि होते है। भावका लक्षण परिणाममात्र है और क्रियाका लक्षण परिस्पन्दन। समस्त ही द्रव्य भाववाले हैं, क्योकि परिणाम स्वभावी है। पुद्गल क्रियावान भी होते हैं, क्योंकि परिस्पदन स्वभाववाले हैं। तथा जीव भी क्रियावाद भी होते हैं, क्योंकि वे भी परिस्पन्दन स्वभाववाले हैं । (पं.ध./उ./२५)। ५. परिणामी व नित्यकी अपेक्षा विभाग वसु.श्रा./२७,३३ बंजणपरिणइविरहा धम्मादीआ हवे अपरिणामा। अस्थपरिणामभासिय सव्वे परिणामिणो अत्था ।२७। मुत्ता जीवं कार्य णिचा सेसा पयासिया समये । वंजणमपरिणामचुया इयरे त परिणयपत्ता 1३। -धर्म, अधर्म, आकाश और चार द्रव्य व्यंजनपर्यायके अभावसे अपरिणामी कहलाते है। किन्तु अर्थपर्यायकी अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी माने जाते है, क्योकि अर्थपर्याय सभी द्रव्यों में होती है ।२७। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योको छोड़कर शेष चारों द्रव्योको परमागममे नित्य कहा गया है, क्योंकि उनमें व्यंजनपर्याय नहीं पायी जाती हैं। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमे व्यंजनपर्याय पायी जाती है, इसलिए वे परिणामी व अनित्य है।३३। (द्र.सं./टी./ अधि. २ की चूलिका/७६-७; ७७-१०) (प.का./ता.वृ./२७/५७/) । ६. सप्रदेशी व अप्रदेशीकी अपेक्षा विभाग बसु. श्रा./२६ सपएसपंचकालं मुत्तूण पएससंचया णेया। अपएसो खलु कालो पएसबन्धच्चुदो जम्हा २६ = कालद्रव्यको छोड़कर शेष पाँच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए, क्योंकि, उनमें प्रदेशोका संचय पाया जाता है। कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योकि वह प्रदेशोके बन्ध या समूहसे रहित है, अर्थात् कालद्रव्यके कालाणु भिन्न-भिन्न ही रहते है (द्र.सं./टी./अधि, २ की चूलिका/७७/४); (पं.का./ता.व./२७/१७/४)। (विशेष दे० अस्तिकाय) ७. क्षेत्रवान् व अक्षेत्रवान्की अपेक्षा विभाग वसु.श्रा./३१ आगासमेव वित्तं अवगाहणलक्खण जदो भणियं । सेसाणि पुणोऽवित्तं अवगाहणलक्खणाभावा। = एक आकाश द्रव्य ही जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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