Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 492
________________ धर्मध्यान ४८४ ५. पंचमकालमे भी धमध्यानको सफलता धर्माध्यानसे अतिक्रान्त होकर अत्यन्त शुद्धताको प्राप्त हुआ धीर वीर मुनि अत्यन्त निर्मल शुक्लध्यानके ध्यावनेका प्रारम्भ करता है। विशेष दे० धर्मध्यान/६/६ । (पं० का/१५०)-(दे० 'समयसार')धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्यसमयसार । ६. परपदार्थों के चिन्तवनसे कर्मक्षय कैसे सम्मव है ध. १३/५,४,२६/७०/४ कधं ते णिग्गुणा कम्मक्खयकारिणो । ण तेसि रागादिणिरोहे णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो।प्रश्न-जब कि नौ पदार्थ निर्गुण होते है, अर्थात अतिशय रहित होते है, ऐसी हालतमें वे कर्मक्षयके कर्ता कैसे हो सकते है । उत्तर-नहीं, क्योंकि वे रागादिके निरोध करने में निमित्तकारण हैं, इसलिए उन्हे कर्मक्षयका निमित्त मानने में विरोध नहीं आता। (अर्थात उन जीवादि नौ पदार्थोंके स्वभावका चिन्तवन करनेसे साम्यभाव जागृत होता है।) ५. पंचमकालमें भी धर्मध्यानकी सफलता ३. धर्म्यव्यानका फल मोक्ष त. सू./६/२६ परे मोक्षहेतू ।२६।-अन्तके दो ध्यान (धर्म्य व शुक्ल ध्यान ) मोक्षके हेतु है। चा. सा./१७२/२ ससारलतामूलोच्छेदनहेतुभूतं प्रशस्तध्यानं । तदद्विविध, धम्यं शुक्ल चेति । =संसारलताके मूलोच्छेद का हेतुभूत प्रशस्त ध्यान है । वह दो प्रकारका है-धर्म्य व शुल्क । १. एक धर्मध्यानसे मोहनीयके उपशम व क्षय दोनों होनेका समन्वय ध,१३/१४,२६/८१/३ मोहणीयस्स उबसमो जदि धम्मज्झाणफलो तो ण बदी, एयादो दोण्णं कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण धम्मज्झाणादो अणेयभेयभिण्णादो अणेयकज्जाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो।प्रश्न-मोहनीय कर्मका उपशम करना यदि धर्म्यध्यानका फल हो तो इसीसे मोहनीयकाक्ष य नही हो सकता। क्योकि एक कारणसे दो कार्यों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । उत्तर-नही, क्योंकि धर्म्यध्यानअनेक प्रकारका है। इसलिए उससे अनेक प्रकारके कार्योंकी उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता।। .. धम्यध्यानसे पुण्यात्रव व मोक्ष दोनों होनेका समन्वय १. साक्षात् नहीं परम्परा मोक्षका कारण है ज्ञा./३/३२ शुभध्यानफलोद्भूतां श्रियं त्रिदशसंभवाम् । निर्विशन्ति नरा नाके क्रमाद्यान्ति पर पदम् ॥३२॥ =मनुष्य शुभध्यानके फलसे उत्पन्न हुई स्वर्गको लक्ष्मीको स्वर्ग में भोगते है और क्रमसे मोक्षको प्राप्त होते हैं। और भी दे० आगे धर्माध्यान//२)। २. अचरम शरीरियोंको स्वर्ग और चरम शरीरियोंको मोक्षप्रदायक है ध. १३/५,४,२६/७७/१ किंफलमेदं धम्मज्माणं । अक्रववएसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जरा फलं च । खवरसु पुण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च । अतएव धादनपेतं धर्म्यध्यानमिति सिद्धम् । = प्रश्नइस धर्म्यध्यानका क्या फल है ? उत्तर-अक्षपक जीवोंको (या अचरम शरीरियोंको) देवपर्याय सम्बन्धी विपुलसुख मिलना उसका फल है, और गुणश्रेणी में कर्मोकी निर्जरा होना भी उसका फल है। तथा क्षपक जीवोंके तो असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभकर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका होना उसका फल है। अतएव जो धर्मसे अनपेत है व धर्मध्यान है यह बात सिद्ध होती है। त. अनु./१९७, २२४ ध्यातोऽर्ह सिद्धरूपेण चरमाङ्गस्य मुक्तये । तयानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये ।१६७। ध्यानाभ्यासप्रकर्षण त्रुट्यन्मोहस्य योगिनः। चरमाङ्गस्य मुक्तिः स्यात्तदैवान्यस्य च क्रमात ।२२४।ळ अर्हद्रूप अथवा सिद्धरूपसे ध्यान किया गया (यह आत्मा) चरमशरीरी ध्याताके मुक्तिका और उससे भिन्न अन्य ध्याताके भुक्ति (भोग) का कारण बनता है, जिसने उस ध्यानसे विशिष्ट पुण्यका उपार्जन किया है ।११७ ध्यानके अभ्यासकी प्रकर्षतासे मोहको नाश करनेवाले चरमशरीरी योगीके तो उस भवमें मुक्ति होती है और जो चरम शरीरी नहीं है उनके क्रमसे मुक्ति होती है ।२२४॥ ३. क्योंकि मोक्षका साक्षात् हेतुभूत शुक्लध्यान धर्म्यध्यान पूर्वक ही होता है। ज्ञा./४२/३ अथ धर्म्यमतिक्रान्त' शुद्धि चात्यन्तिकी श्रित' । ध्यातुमारभते वीरः शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ३ = इस धर्म्यध्यानके अनन्तर १. यदि ध्यानसे मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता प.प्र./टी./१/६७/६२/४ यद्यन्तर्मुहूर्त परमात्मध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि इदानीं अस्माकं तद्ध्यानं कुर्वाणानां कि न भवति । परिहारमाहयादशं तेषां प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति तादृशमिदानी नास्तीति ।-प्रश्न-यदि अन्तर्मुहूर्तमात्र परमात्मध्यानसे मोक्ष होता है तो ध्यान करनेवाले भी हमें आज वह क्यों नहीं होता । उत्तरजिस प्रकारका शुक्लध्यान प्रथम संहननवाले जीवोंको होता है वैसा अब नहीं होता। २. यदि इस कालमें मोक्ष नहीं तो ध्यान करनेसे क्या प्रयोजन द्र. सं./टी./५७/२३३/११ अथ मत-मोक्षार्थ ध्यानं क्रियते, न चायकाले मोक्षोऽस्ति, ध्यानेन कि प्रयोजनम् । नैवं अद्यकालेऽपि परम्परया मोक्षोऽस्ति। कथमिति चेत्, स्वशुद्धात्मभावनाबलेन संसारस्थिति स्तोकं कृत्वा देवलोकं गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावना लब्ध्वा शीघ्र मोक्ष गच्छतीति। येऽपि भरतसगररामपाण्डबादयो मोक्षं गतास्तेऽपि पूर्वभवेऽभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थिति स्तोकं कृत्वा पश्चान्मोक्षं गताः। तद्भवे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति । प्रश्न-मोक्षके लिए ध्यान किया जाता है, और मोक्ष इस पंचमकालमे होता नही है, इस कारण ध्यानके करनेसे क्या प्रयोजन 1 उत्तर-इस पंचमकालमें भी परम्परासे मोक्ष है। प्रश्नसो कैसे है ? उत्तर-ध्यानी पुरुष निज शुद्धात्माकी भावनाके बलसे संसारकी स्थितिको अल्प करके स्वर्गमें जाता है। वहाँसे मनुष्यभवमें आकर रत्नत्रयको भावनाको प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्षको चला जाता है । जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचन्द्र तथा पाण्डव युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम आदि मोक्षको गये हैं, उन्होने भी पूर्वभवमें अभेदरत्नत्रयकी भावनासे अपने संसारको स्थितिको घटा लिया था। इस कारण उसी भवमें मोक्ष गये । उसी भवमे सबको मोक्ष हो जाता हो, ऐसा नियम नहीं है। (और भी देखो/७/१२)। ३. पंचमकालमें अध्यात्मध्यानका कथंचित् सद्भाव व असद्भाव न. च. वृ./३४३ मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव वीयरायसामग्गी। तम्हा सुद्धचरित्ता पंचमकाले वि देसदो अत्थि ।३४३१ = सरागकी भाँति वीतरागताकी सामग्री जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट होती है। इसलिए पंचमकालमें भी शुद्धचरित्र कहा गया है। (और भी दे० अनुभव/१२)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648