Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 602
________________ निक्षेप २. द्रव्याथिक व पर्यायाथिकमें अन्तर्भाव ३. नामको द्रव्यार्थिक कहनेमें हेतु श्लो. बा, २/१/५/६६/२७६/२४ नन्वस्तु द्रव्यं शुद्धमशुद्ध च द्रव्यार्थिकनयादेशाद, नाम-स्थापने तु कथं तयोः प्रवृत्तिमारभ्य प्रागुपरमादन्वयित्वादिति बम । न च तदसिद्ध देवदत्तं इत्यादि नाम्नः क्वचिद्बालाद्यवस्थाभेदाद्भिन्नेऽपि विच्छेदानुपपत्तेरन्वयित्व सिद्ध । क्षेत्रपालादिस्थापनायाश्च कालभेदेऽपि तथात्वाविच्छेदः इत्यन्वयित्वमन्वयप्रत्ययविषयत्वात् । यदि पुनरनाद्यनन्तान्वयासत्त्वान्नामस्थापनयोरनन्वयित्वं तदा घटादेरपि न स्यात् । तथा च कुतो द्रव्यत्वम् । व्यवहारनयात्तस्यावान्तरद्रव्यत्वे तत एव नामस्थापनयोस्तदस्तु विशेषाभावात् । -प्रश्न-- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य तो भले ही द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे मिल जायें, किन्तु नाम स्थापना द्रव्याथिकनयके विषय कैसे हो सकते है । उत्तर-तहाँ भी प्रवृत्तिके समयसे लेकर विराम या विसर्जन करनेके समय तक, अन्वयपना विद्यमान है। और वह असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि देवदत्त नामके व्यक्ति में बालक कुमार युवा आदि अवस्था भेद होते हुए भी उस नामका विच्छेद नहीं बनता है। (ध.४/१,३,१/३।६) । इसी प्रकार क्षेत्रपाल आदिकी स्थापनामें काल भेद होते हुए भा. तिस प्रकारको स्थापनापनेका अन्तगल नहीं पड़ता है। यह वह है' इस प्रकारके अन्वय ज्ञानका विषय होते रहनेसे तहाँ भी अन्वयीपना बहुत काल तक बना रहता है। प्रश्न-परन्तु नाम व स्थापनामें अनादिसे अनन्त काल तक तो अन्वय नहीं पाया जाता' उत्तर-इस प्रकार तो घट, मनुष्यादिको भी अन्वयपना न हो सकनेसे उनमे भी द्रव्यपना न बन सकेगा। प्रश्न-तहाँ तो व्यवहार नयकी अपेक्षा करके अवान्तर द्रव्य स्वीकार कर लेनेसे द्रव्यपना बन जाता है । उत्तर-तब तो नाम व स्थापनामें भी उसी व्यवहारनयकी प्रधानतासे द्रव्यपना हो जाओ, क्योंकि इस अपेक्षा इन दोनों में कोई भेद नहीं है। ध, ४/१,३१/३/७ बाच्यवाचकशक्तिद्वयात्मके कशब्दस्य पर्यायाथिकनये असंभवाद्वा दव्व ठियणयस्मेत्ति वुच्चदे । = वाच्यवाचक दो शक्तियोंवाला एक शब्द पर्यायार्थिक नयमे असम्भव है, इसलिए नाम द्रव्यार्थिक नयका विषय है, ऐसा कहा जाता है। (ध.६/४.१,४५/ १८६/६) (विशेष दे० नय/IV/३/८/२) । ध.१०/४,२,२,२/१०/२ णामणिक्खेवो दव्वटि ठयणए कुदो संभवदि । एक्कम्हि चेव दवम्हि वट्टमाणाणं णामाणं तब्भवसामाणम्मि तीदाणागय-बट्टमाणपज्जाएसु संचरणं पड्डुच्च अत्तव्य ववएसम्मि अप्पहाणीकयपज्जायम्मि पउत्तिदंसणादो, जाइ-गुण-कम्मेसु बट्टमाणाणं सारिच्छसामण्णम्मि बत्तिविसेसाणुवुत्तीदो ल द्धदव्वववएसम्मि अप्पहाणी करावत्तिभावम्मि पउतिदंसणादो, सारिच्छसामण्णप्पयणामेण विणा सद्दव्ववहाराणुववत्तीदो च । प्रश्न-नाम निक्षेप द्रव्यार्थिकनयमें कैसे सम्भव है। उत्तर-चू कि एक ही द्रव्यमें रहनेवाले द्रव्यवाची शब्दोंकी, जिसने अतीत, अनागत व वर्तमान पर्यायोंमें संचार करनेकी अपेक्षा 'द्रव्य' व्यपदेशको प्राप्त किया है और जो पर्यायको प्रधानतासे रहित है ऐसे तभावसामान्य में, प्रवृत्ति देखी जाती है ( अर्थात् द्रव्यसे रहित केवल पर्यायमें द्रव्यवाची शब्दको प्रवृत्ति नहीं होती है)। (इसी प्रकार ) जाति, गुण व क्रियावाची शब्दों की, जिसने व्यक्ति विशेषोंमे अनुवृत्ति होनेसे 'द्रव्य' व्यपदेशको प्राप्त किया है. और जो व्यक्ति भावकी प्रधानतासे रहित है, ऐसे सादृश्यसामान्यमें, प्रवृत्ति देखी जाती है । तथा सादृश्यसामान्यात्मक नामके बिना शब्द व्यवहार भी घटित नही होता है, अत' नाम निक्षेप द्रव्यार्थिक नयमें सम्भव है । (ध.४/१,३,१/३/६) । और भी दे०निक्षेप/३ (नाम निक्षेपको नै गम संग्रह व व्यवहार नयोका विषय बतानेमे हेतु । तथा द्रव्यार्थिक होते हुए भी शब्दनयोका विषय बनने में हेतु। ४. स्थापनाको द्रव्यार्थिक कहने में हेतु दे० पहला शीर्षक नं.३('यह वही है। इस प्रकार अन्वयज्ञानका विषय होनेसे स्थापना निक्षेप द्रव्याथिक है)। ध.४/१,३ १/४/२ सम्भावासब्भावसरूवेण सक्वदआवि त्ति वा, पधाणापधाणदव्याण मेगत्तणिबंधणेत्ति वा एवणणिक्खेत्रो दयट्ठियणयबुल्लीणो। स्थापना निक्षेप तदाकार और अतदाकार रूपसे सर्वद्रव्योमें व्याप्त होनेके कारण; अथवा प्रधान और अप्रधान द्रव्यो को एकताका कारण होनेसे द्रव्याथिकनयके अन्तर्गत है। ध. १०/४,२,२,२/१०/८ कधं दवठियणए वणणामसंभवो। पडिणिहिज्ज माणस्स पडिणिहिणा सह एयत्तवज्झवसायादो सब्भावासभाबठवणभेएण सव्वत्थेसु अण्णयदसणादो च। =प्रश्न-द्रव्याथिक नयमें स्थापना निक्षेप कैसे सम्भव है। उत्तर-एक तो स्थापनामें प्रतिनिधीयमानकी प्रतिनिधिके साथ एकताका निश्चय होता है, और दूसरे सद्भावस्थापना व असदभावस्थापनाके भेद रूपसे सब पदार्थोमें अन्वय देखा जाता है, इसलिए द्रव्यार्थिक नयमें स्थापनानिक्षेप सम्भव है। ध.६/४,१,४५/१८६/६ कधं ठ्वणा दबटिठयविसओ। ण, अतम्हि तग्गहे सते ठवणुववत्तोदो। नहीं; क्योंकि जो वस्तु अतद्रूप है उसका तद्रूपसे ग्रहण होने पर स्थापना बन सकता है। और भी दे० निक्षेप/३ (स्थापना निक्षेपको नैगम, संग्रह व व्यवहार नयोका विषय बतानेमें हेतु।) ५. द्रव्यनिक्षेपको द्रव्यार्थिक कहनेमें हेतु ध.६/४,१,४५/१८७/१ दव्वसुदणाणं पिदव्वठियणयविसओ, आहाराहेयाण मेयत्तकप्पणाए दध्वसुदग्गणादो। - द्रव्य श्रुतज्ञान ( श्रुतज्ञानके प्रकरण में ) भी द्रव्याथिकनयका विषय है। क्यों कि आधार और आधेयके एकत्वकी कल्पनासे द्रव्यश्रुतका ग्रहण किया गया है। (विशेष दे० निक्षेप/३ मे नै गम, संग्रह व व्यवहारनयके हेतु ।) ६. भावनिक्षेपको पर्यायार्थिक कहने में हेतु ध.६/४,१,४५/१८७/२ भावणिक्खेबो पज्जवठ्ठियणयविसओ, वट्टमाणपज्जाएणुवल क्खियदव्वग्गहणादो। =भाव निक्षेप पर्यायाथिकनयका विषय है; क्योंकि वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यका यहाँ भाव रूपसे ग्रहण किया गया है। (विशेष दे० निक्षेप/३ में जुसूत्र नयमे हेतु ) ७. भाव निक्षेपको द्रव्यार्थिक कहनेमें हेतु क. पा./१/१,१३-१४/२६०/१ णाम-ठ्ठवणा-दन्न-णिवरवेवाणं तिहं पि तिण्णि वि दवठ्ठियणया सामिया होंतु णाम ण भावणियखेवस्स; तस्स पज्जवट्ठियणयमवलं बिय( पवट्टमाणत्तादो)..ण एस दोसो; बट्टमाण पज्जाण्ण उवल विखयं दवं भावो णाम | अप्पट्टाणीकयपरिणामेसु सुद्धदव्य ठ्ठिएसु णएसु णादीदाणगयवट्टमाणकाल विभागो अत्थि; तस्स पट्टाणीकयपरिणामपरिणाम(णय )त्तादो। ण तदो एदेसु ताव अस्थि भावणिवखेवो; वट्टमाणकालेण विणा अण्णकालाभावादो। वंजणपज्जाएण पादिदव्वेसु सुट असुद्धदबटिएसु वि अस्थि भावणिक्खेवा, तत्थ वि तिकालसंभवादो। अथवा, सवदवठ्ठियणएसु तिणि काला संभव ति; सुणएसु तदविरोहादो। ण च दुण्णएहिं ववहारो; तेसिं विसयाभावाहो। च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो; उज्जुसुदणयविसयभावणिखेवमस्सिदूण तप्पउत्तीदो। तम्हा णेगम-संग्गह-ववहारणएसु सव्वणिवखेग संभवंति त्ति सिद्ध । प्रश्न-(तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्यको अवलम्बन करके प्रवृत्त होनेके कारण) नाम, स्थापना व द्रव्य इन तीनों निक्षेपो के नै गमादि तीनो ही द्रव्याथिकनय स्वामी होओ, परन्तु भावनिक्षेपके वे स्वामो नहीं हो सकते है; क्योकि, भावनिक्षेप पर्यायाथिक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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