Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 514
________________ नमस्कार नमस्कार भ,आ./मू-/७५४/६१८ मणसा गुणपरिणामो वाचा गुणभासणंच पचण्हं। काएण संपणामो एस पयत्थो णमोकारो। मनके द्वारा अर्हतादि पंचपरमेष्ठीके गुणोंका स्मरण करना, वचनके द्वारा उनके गुणोंका वर्णन करना, शरीरसे उनके चरणोंमें नमस्कार करना यह नमस्कार शब्दका अर्थ है। (भ आ./वि/५०६/७२८/१३) ध.5/३/४२/१२/७ पंचहि मुट्ठीहि जिणिदचलणेसु णिवदणं णमंसणं ।पाँच मुष्टियो अर्थात पाँच अंगोसे जिनेन्द्रदेवके चरणों में गिरनेको नमस्कार कहते हैं। २. एकांगी आदि नमस्कार विशेष अन.ध./८/६४-६५/८१६ योगैः प्रणामस्त्रेधार्हज्ज्ञानादेः कीर्तनावत्रिभिः । के करौ ककर जानुकरं ककरजानु च ६४ा नम्रमेकद्वित्रिचतुःपञ्चाङ्गः कायिकै क्रमात । प्रणाम' पञ्चधा वाचि यथास्थानं क्रियते सः 181 टीकामें उद्धृत-मनसा वचसा तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनिः । ज्ञानादीनां जिनेन्द्रस्य प्रणाम स्त्रिविधो मतः । एकाङ्गो नमने मू! द्वयनः स्यात करयोरपि । ध्यग: करशिरोनामे प्रणामः कथितो जिनः। करजानुविनामेऽसौ चतुरनो मनीषिभिः। करजानुशिरोनामे पञ्चाङ्गः परिकोर्तितः। प्रणामः कायिको ज्ञात्वा पञ्च धेति मुमुक्षुभिः । विधातव्यो यथास्थानं जिनसिद्धादियन्दने ॥ -जिनेन्द्रके ज्ञानादिकका कीर्तन करना, मन, वचन, कायकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। जिसमें कायिक प्रणाम पाँच तरहका है। केवल शिरके नमानेपर एकांग, दोनों हाथोंको नमानेसे यंग, दोनों हाथ और शिरके नमानेपर व्यंग, दोनों हाथ और दोनों घुटने नमानेपर चतुरंग तथा दोनों हाथ, दोनों घुटने व मस्तक नमानेपर पंचांग प्रणाम या नमस्कार कहा जाता है। सो इन पाँचोंमें केसा प्रणाम कहाँ करना चाहिए ऐसा जानकर यथास्थान यथायोग्य प्रणाम करना चाहिए। ३. अवनमन या नति ध.१३/५,४,२८/८/९ ओणदं अवनमनं भ्रमावासनमित्यर्थः।-ओणदका अर्थ अवनमन अर्थात् भूमिमे बैठना है। ४. शिरोनति घ./१३/५,४,२८/८/१२ जं जिणिदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं - जिनेन्द्रदेवको शिर नवाना एक सिर अर्थात् शिरोनति कह लाती है। अन.ध./८/80/-१७ प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमद क्रियते शिरः । यत्पाणिकुड्मलाडू तत् क्रियायां स्यान्चतु शिर. प्रकृतमें शिर या शिरोनति शब्दका अर्थ भक्ति पूर्वक मुकुलित हुए दोनों हाथोंसे संयुक्त मस्तकका तोन-तीन आवाके अनन्तर नम्रीभूत होना समझना चाहिए। ५. कृतिकर्ममें नमस्कार व नति करनेकी विधि घ.१३/५,४,२८/८६/५ तं च तिण्णिबार कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदं। तं जहा-सुद्धमणो धोदपादो जिणिदर्दसणजणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जं जिणस्स अग्गे वइसदि तमेगमोणदं । जमुट्ठिऊण जिणिदादीणं विण्णत्ति कादूण वइसणं तं विदियमोणदं । पुणो उट्ठिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धि काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयराणं बंदणं काऊण पुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथ काऊण जं भूमीए वइसणं तं तदियमोणदं । एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिणि चेव ओणमणाणि होति । सवकिरियाकम्मं चदुसिरं होदि। तं जहा सामाइयस्स आदीए जंजिणिदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं । तस्सेव अवसाणे जं सीसणमणं तं विदियं सोस। थोस्सामिदंड्यस्स आदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं । तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिर । एवमेग किरियाकम्मं चदुसिरं होदि। ...अधवा सब पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि; अरहंतसिद्धसाहुधम्मै चेव पहाणभूदे कादूण सम्वकिरियाकम्माणं पउत्ति दंसणादो। -वह (अबनमन या नमस्कार ) तीन बार किया जाता है, इसलिए तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा-शुद्धमन, धौतपाद और जिनेन्द्रके दर्शनसे उत्पन्न हुए हर्षसे पुल कित वदन होकर जो जिनदेवके आगे बैठना (पंचांग नमस्कार करना), प्रथम अवनति है। तथा जो उठकर जिनेन्द्र आदिके सामने विज्ञप्ति (प्रतिज्ञा ) कर बैठना यह दूसरी अवनति है। फिर उठकर सामायिक दण्डकके द्वारा आत्मशुद्धि करके. कषायसहित देहका उत्सर्ग करके अर्थात कायोत्सर्ग करके. जिनदेवके अनन्तगुणोंका ध्यान करके, चौबीस तीर्थंकरोंकी वन्दना करके, फिर जिन, जिनालय और गुरुकी स्तुति करके जो भूमिमें बैठना ( नमस्कार करना) वह तीसरी अवनति है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म करते समय तीन ही अवनति होती हैं। सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है । यथा सामायिक ( दण्डक) के आदिमें जो जिनेन्द्रदेवको सिर नवाना वह एकसिर है। उसी. के अन्तमें जो सिर नवाना वह दूसरा सिर है। स्थोस्सामि दण्डकके आदिमें जो सिर नवाना वह तीसरा सिर है। तथा उसीके अन्तमें जो नमस्कार करना वह चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतु'शिर होता है। अथवा सभी क्रियाकर्म चतुःशिर अर्थात चतुःप्रधान होता है, क्योंकि अहंत, सिद्ध, साधु और धर्मको प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है। (अन, ध./८/ १३/८१६)। अन.ध./८/११/८१७ प्रतिभ्रामरि वा दिस्तुतौ दिश्यकश्चरेत् । श्रीनाव नि शिरश्चैक तदाधिक्यं न दुष्यति । -चैत्यादिकी भक्ति करते समय प्रत्येक प्रदक्षिणामें पूर्वादि चारों दिशाओंकी तरफ प्रत्येक दिशामें तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिए। विशेष टिप्पणी-दे० कृतिकर्म/२ तथा ४/२। * अधिक बार करनेका निषेध नहीं-दे. कृतिकर्म/२/8 । ६. नमस्कारके आध्यात्मिक भेद भ. आ./वि./७२२/८६७/२ नमस्कारो द्विविधः द्रव्यनमस्कारो भाव नमस्कारः। भ. आ./वि/७५३/११६/५ नमस्कारः नामस्थापनाद्रव्यभावविकल्पेन चतुर्धा व्यवस्थितः। = नमस्कार दो प्रकारका है-द्रव्य नमस्कार व भाव नमस्कार । अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य व भावकी अपेक्षा नम स्कार चार प्रकारका है। पं. का./ता.वृ./१// आशीर्वस्तुनमस्क्रियाभेदेन नमस्कारस्त्रिधा। आशीर्वाद, वस्तु और नमस्क्रियाके भेदसे नमस्कार तीन प्रकारका होता है। ७. द्रव्य व माव नमस्कार सामान्य निर्देश भ.आ./वि/७२२/८/२ नमस्तस्मै इत्यादि शब्दोच्चारणं, उत्तमागावनतिः, कृताञ्जलिता द्रव्यनमस्कारः । नमस्कर्तव्याना गुणानुरागो भावनमस्कारस्तत्र रति.। श्री जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो ऐसा मुखसे कहना, मस्तक नम्र करना और हाथ जोड़ना यह द्रव्य नमस्कार है और नमस्कार करने योग्य व्यक्तियोंके गुणों में अनुराग करना, यह भाव नमस्कार है। नोट-द्रव्य नमस्कार विशेषके लिए -दे० शीर्षक तथा भाव नमस्कार विशेषके लिए-दे० आगे न०८। नाम व स्थापनादि चार भेदोके लक्षण-दे० मिक्षप । ८. भेद अभेद भाव नमस्कार निर्देश प्र.सा./त.प्र./२०० स्वयमेव भवतु चास्यैवं दर्शनविशुद्धिमूलया सम्यरज्ञानोपयुक्ततयात्यन्तमव्याबाधरतत्वात्साधोरपि साक्षारिसद्धभूतस्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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