Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 591
________________ नामकर्म जाता है । देवदत्त आदि यदृच्छा शब्द भी क्रियावाची हैं; क्योंकि, देव ही जिस पुरुषको देवे ऐसे क्रियारूप अर्थको धारता हुआ देवदत्त है। इसी प्रकार दस भी क्रियावाची है। दण्डी विषाणी आदि संयोगव्यवाची या समत्रायद्रव्यवाची शब्द भी क्रियावाची ही हैं, क्योंकि, दण्ड जिसके पास वर्त रहा है वह दण्डी और सींग जिसके वर्त रहे है वह विषाणी कहा जाता है। जातिशब्द आदि रूप पाँच प्रकार के शब्दोकी प्रवृत्ति तो व्यवहार मात्र होती है। निश्चयसे नहीं है। ऐसा एवंभूत न मानता है। * गाण्यपद आदि नाम - दे० पद । * भगवान्के १००८ नाम - दे० म. पू. १५/ १००-२१०१ ★ नाम निक्षेप - दे० आगे पृथक शब्द । ५८३ नामकर्म - 1. नामकर्मका लक्षण प्र. सा./मू./११७ कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणी सहावेण । अभिभूय र तिरिय रइयं वासुरं कुर्णादि । नाम सज्ञावाला कर्म जीवके शुद्ध स्वभावको आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यच, नारकी अथवा देव रूप करता है । (गो.क./मू./१२/१) स.सि./८/२/२०६/२ नाम्नो नरकादिनामकरणम् । स.सि./८/४/३८१/१ नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम । = (आत्मा का) नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की प्रकृति (स्वभाव) है । जो आत्माको नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है वह नामकर्म है ( रा. रा./८/३/४/३६०/५ तथा ८/४/२/१४); (प्र.सा./ ता. वृ.) । घ. ६/ १.१.१.१०/१३/३ नाना मिनोति नियतीति नाम के पोस सरीरसंठाणसं घडणवण्णगंधादिकज्जकारया जोवणिविट्ठा ते णामसणिदा होति त्ति उत्त होदि । =जो नाना प्रकारको रचना निर्वृ स करता है, यह नामकर्म है शरीर संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कार्यों करनेवाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं, वे 'नाम' इस संज्ञा बाले होते हैं. ऐसा अर्थ कहा गया है। गो, क./मू./१२/३) (गो क./ जी. प्र./२०/१३/१६); (द्र.सं./टी./३३/१२/१२) । · २. नामकमके भेद १. मूलमेद रूप ४२ प्रकृतियाँ . . ६/१३-१/२८/५० गदिणार्म जादिणामं सरीरणामे सरीरसंघणणामं सरोरसंवादमार्ग सरीरसंागणार्म सरीरअंगोवंगगार्म सरीरसंघहणणामं दनणामं गंधणामं रसणार्म फासणार्म आणुमीणा अगुस्तहुमणामं उपपादणामं पश्चादणाम उस्सारणाम आदावणामं उज्जोबा विहायगविणामं तसणामं वावरणार्म बादरणामं मुहुमणामं पज्जत्तणामं अपजत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साधारणसरीरणामं थिरणाम अथिरणामं सुहणामं असुहणामं सुभगणा दूभगणामं सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदेज्जणामं अणादेज्जणामं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं णिमिणामं तित्थयरणामं चेदि १२८ = १, गति, २. जाति, ३. शरीर, ४. शरीरबन्धन, १. शरीरसंघात ६. शरीरसंस्थान. ७ शरीर अंगोपांग शरीर संहनन, वर्ण, १०. गन्ध, ११. रस. १२. स्पर्श १३ नुपूर्वी १४. अगुरुलघु, १५. उपघात, १६. परघात, १७. उच्छ्वास, १८, आतप, १६. उद्योत २०. विहायोगति, २१ त्रस २२. स्थावर २३, बादर, २४, सूक्ष्म २५ पर्याप्त, २६ अपर्याप्त २७ प्रत्येक शरीर, २८. साधारण शरीर, २६, स्थिर, ३०. अस्थिर, ३१. शुभ, ३२. अशुभ, ३३. सुभग, ३४, दुर्भग, ३५, सुस्वर, ३६. दुःस्वर, ३७. आदेय, ३९ जना, २९. यशःकीति ४०. अमशः कीर्तिः ४१ निर्माण और ४२. तीर्थकर ये नाम कर्मको ४२ पिड प्रकृतियाँ हैं.. Jain Education International नामकर्म १३/२.२ / तू. १०१ / ३६३) (रा. सू. /०/१९) (सू. आ./ १२३०- १२३३ ) (पं/प्र/२/४) (म.बं. १/१४/२८/३) (गो, क/जी.प्र./२६/११/०). २. उत्तर भेदरूप ९३ प्रकृतियों - दे० वह वह नाम गति चार है-नरकारि जाति पाँच हैं- एकेन्द्रिय आदि शरीर पाँच है- औदारिकादि बन्धन पाँच है बौदारिकादि शरीर बन्धन संघात पांच है- औदारिकादि शरीर संघात । संस्थान छह हैं - समचतुरस्र आदि। अंगोपांग तीन हैं- औदारिक आदि । संहनन छह हैं-वज्रऋषभनाराच आदि । वर्ण पॉच हैंसुक्त आदि गन्ध दो सुगन्ध दुर्गन्ध रस पाँच हैं-ठिक्क आदि स्पर्श आठ है— कर्कश आदि आनुपूर्वी चार है- नरकगत्यानुपूर्वी आदि। विहायोगति दो हैं- प्रशस्त अप्रशस्त । - इस प्रकार इन १४ प्रकृतियों के उत्तर भेद ६५ हैं। मूल १४को बजाय उनके ६५ उत्तर भेद गिननेपर नाम कर्मकी कुल प्रकृतियाँ ६३ (४२+६५ १४६३) हो जाती है।) " 1 ३. नामकर्मकी असंख्यात प्रकृतियाँ प. १२/४.१,१४/ सूत्र ९६/४०३ णामस्स कम्मस्स असंगतपडीओ | १६ | नामकर्मकी असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियाँ है । ( रा. बा./८/१३/३/५८१/५) • ( १३/२३/१४ पिरयगइया ओग्गाणामार पडीओो अंगुलरस विभागमेसमा हाणि तिरिराणि डीए असंखेज दिमागमे तेहि खगाहन नियहि गुणिदाओ एवडियाओ यडीओ । (११६ / ३७९) । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्विणामाए पथडीओ लोओ सेडीए असंखेज्जदिभागमे ते हि ओगाहवियप्पेहि गुणिदाओ । एवडियाओ पयडीओ । (११८ - ३७६) । मणुसगइपाओग्गाणुपुब्विणामाए पयडीओ पणदाली सजोयणसएसहस्वाहाणि तिरिय१दराणि वाट दफणाणि सेडीए जदभागमेहि जगाहणनियम्पेहि गुणिदाओ एशियाओ पडीओ । (१२०/२००)। देवगहपाओग्गा नामाए पयडीयो जनजोयसमाथि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ । एवडियाओ पयडीओ । (१२२/३८३)। नरकगत्यानुपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियाँ अंगुल के असंख्यात भागमात्र तिर्यक्प्रतररूप माहत्यको श्रेणिके असंख्यात भागमात्र अवगाहनाविकल्पों गुपित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियाँ हैं ११६। तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियाँ लोकको जगणी असंख्यात भागमात्र अवगाहना विकल्पोंसे गुणित करने पर जो आये उतनी है उसकी इतनी मात्र प्रकृतियों होती हैं ११ मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतियों कपाट छेदनसे निष्पन्न पैंतालीस लाख योजन मान्यवाले विर्य प्रतरोंको जगणी असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुपित करनेपर जो न आवे उतनी हैं। उसकी उनी मात्र प्रकृतियाँ होती है। १२० देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियाँ नौ सौ यीजन पाहण्य रूप तिर्यक्प्रतको जगशेणी के असंख्यात भागमात्र अवगाहनाविकल्पोसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी होती हैं। उसकी उनी मात्र प्रकृतियों १२२ " घ. ३/१,२०० /३० / २] पृढविकाणामकम्मोदयतो जोवा विकाइया चिंति पुडविणाम कहि विबुत्तमिति ण रास्स एवं दियजादिणामकम्मतसादो एवं सदि कम्मा संखा यमो मुत्तसिद्धो ण घडदि त्ति वुच्चदे । ण सुत्ते कम्माणि अट्ठेब अट्ठेदालसयमेवेत्ति संखतरपडिसेहविधायय एवकाराभावदो । पुणो कतियाणि कम्माणि होति हयगय वियपुरतं वसत्तमणुदेहि-गोमिदादीणि बेतियागि कम्मफलानि सोगे उपलम्भते जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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