Book Title: Jain Siddhant Dipika
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 210
________________ जैन सिद्धान्त दीपिका १८३ और सत्य के रूप में या प्रवाह के रूप में अनादि-अनन्त। ११. गमिक श्रुत-बारहवां अंग, दृष्टिवाद। इसमें बाला पक पाठ-सरीले पाठ होते हैं-'सेसं तहेव भाणियम्ब'-कुछ वर्णन चलता है और बताया जाता हैशेष उस पूर्वोक्त पाठ की तरह समझना चाहिए । इस प्रकार एक सूत्र-पाठ का सम्बन्ध दूसरे मूत्र-पाठ से जुड़ा रहता है। १२. अगमिकश्रुत-जिसमें पाठ सरीखे न हों। १३. अंगप्रविष्टश्रुत-गणधरों के रखे हुए भागम-बारह बंग, जैसे-आचार, मूत्रकृत आदि-आदि। १४. अनंगप्रविष्टश्रुत-गणधरों के अतिरिक्त अन्य बाचार्यों द्वारा रपे गए अन्य । ३. अवधिज्ञान के छह प्रकार."२/१९ १. अनुगामी-जो साथ-साप चलता है। २. अननुगामी-जो साप-साथ नहीं चलता। ३. बर्षमान-जो क्रमशः बढ़ता है। ४. होयमान-जो क्रमशः हीन होता है। ५. प्रतिपाति-जिसका पतन हो पाता है। ६. अप्रतिपाति-जिसका पतन नहीं होता। ४. अवधि मोर मनःपर्याय का अन्तर...२/२२ अवधि बोर मनःपर्याय मान की भिन्नता विति, क्षेत्र, - स्वामी और विषय के भेद से होती है। ... विडिकल मेर-बधिमानी जिन मनोम्यों को जानता ' . है, उन्ही को मनः पर्यावहानी विस्तर जानता है। गत भेद-वविधज्ञानगुन के संज्यातवें भाग से

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