Book Title: Jain Siddhant Dipika
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 212
________________ जैन सिदान्त दीपिका १०५ है। इनकी उत्पत्ति शुक्र और शोणित के सम्मिश्रण से होती है । शुक्र और शोणित के जो पुद्गल मात्मसात् हो जाते हैं, वे सचित्त और जो भात्म-प्रदेशों से सम्बद्ध नहीं होते, वे अचित्त कहलाते हैं। शेष सब जीवों की योनि तीन प्रकार की होती है। ४. शीत-प्रथम नरक के नारकों की योनि शीत होती ५. उप्ण-तेजस्काय के जीवों की योनि उष्ण होती है। ६. शीतोष्ण -देव, गर्भज-तिर्यञ्च और गर्भन मनुष्यों की योनि शीतोष्ण होती है । पृथ्वीकाय, अप्काय, वायकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रिय और सम्मूच्छिम मनुष्यों की योनि शीत, उष्ण और शीतोप्ण तीनों प्रकार की होती है। नारकों की योनि शीत या उप्ण होती है। ७. मंवृत-हकी हुई-देव, नारक और एकेन्द्रिय जीवों की योनि संवृत होती है। ८. विवृत -प्रगट-विकलेन्द्रिय, सम्मूच्छिमनियंञ्च पञ्चेन्द्रिय और मम्मूच्छिममनुष्यों की योनि विवृन होती है। ६. मंवृत-विवृत-उभयरूप-गभंज-तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों की योनि मंवृत-विवृत होती है। ६. कर्म की प्रकृतियां...४/६ जानावरण १. मतिज्ञानावरण २. श्रुतज्ञानावरण

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