Book Title: Jain Siddhant Dipika
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 222
________________ जैन सिद्धान्त दीपिका १९५ अविभाज्य द्रव्य है, फिर भी कल्पना के द्वारा बात्मा का परमाणुतुल्य भाग प्रदेश–अवयव कहलाता है। ____ आवलिका-सर्व-सूक्ष्म-काल को समय कहते हैं। ऐसे असंख्य समयों की एक बावलिका होती है । ४८ मिनटों को १ करोड ६७ लाख ७७ हजार २१६ मावलिकाएं होती हैं। उत्सपिणी--विकास-काल-दुःख से सुख की ओर जाने वाला काल-कालचक्र का दूसरा चक्र। इसका कालमान दश कोटि-कोटि सागर का होता है । इसके छह विभाग (अर) इस प्रकार हैं: १. एकान्त दुःखमय ४. सुख-दुःसमय २. दुःखमय ५. सुखमय • ३. दुःख-सुखमय ६. एकान्त सुखमय उदोरणा-नियत समय से पहले कर्म का विपाक (उदय) होना। उपचार-(१) अत्यन्त भिन्न शब्दों में भी किसी एक समानता को लेकर उनकी मित्रता की उपेक्षा करना।' (२) मुख्य के अभाव में गौण को मुख्यवत् मान लेना।' उपभोग परिभोग-मर्यादा के उपरान्त भोग में बानेवाले पदार्थ एवं व्यापार का त्याग करना। बौदारिक-योग-मनुष्य मोर तियंत्रों के स्थूल शरीर को बोदारिक शरीर कहते हैं। उसके सहारे मात्मा को को प्रवृत्ति होती है, वह औदारिक योग है। १. उपचारोऽत्यन्तं विसंकलितयोः शब्दयोः सादृश्यातिशयमहिम्ना भेद-प्रतीतिस्थगनमात्रम् २. मुख्याभावे सति निमित प्रयोजने प उपचारः।

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