Book Title: Jain Siddhant Dipika
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 226
________________ १६९ बैन.सिदान्त दीपिका प्रत्याख्यानी–देशविरति को रोकनेवाला कर्म। इसका अब तक उदय रहता है, तब तक कुछ भी त्याग नहीं होता। प्रतिक्रमण-दोनों संध्याओं में किया जाने वाला जनों का प्रायश्चित्त सूत्र । प्रदेश-परमाणु तुल्य अवगाही अवयव । प्रमाद-संयम में अनुत्साह । भक्त-पान-भात-पानी-खान-पान । भवहेतुक-जन्म-सम्बन्धी, जन्म के कारण होने वाला (भवसम्बन्धी अवधिज्ञान)। __ मनोवर्गणा---द्रव्य-मन के पुद्गलों का समूह-चिन्तन में सहायक होने वाले पुद्गल-द्रव्य । मिथ्यात्व-विपरीत अभिनिवेश, असत्य विश्वास या असत्य का आग्रह। मिश्रशब्द-जीव के वाक्-प्रयत्न और पोद्गलिक वस्तु (वीणा आदि) के संयोग से होने वाला शब्द । मूर्त-जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण हो। यथासंविभाग-संयमी को अपने लिए बने हा भोजन का भाग देना। योग-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति । योग-निग्रह-मन, वाणी और शरीर की असत्प्रवृनि त्यागना, सत्प्रवृत्ति करना। योगलिक-असंख्य वर्षजीवी मनुप्य और तियंञ्च, जो 'युग्म' (जोड़े) के रूप में एक साथ जन्मते और मरने हैं और जिनका जीवन कल्पवृक्ष के सहारे चलता है।

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