Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 13
________________ तस्सऽक्कंदण-सोयण-परिदेवण-ताडणाई लिंगाई। इट्ठाऽणिट्ठविओगाऽविओग-वियणानिमित्ताई॥१५॥ क्रन्दन, शोक, परिदेवन और ताड़न ये आर्त ध्यानी के लक्षण हैं। उसमें ये लक्षण इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग की वेदना से पैदा होते हैं। निंदइ य नियकयाइं पसंसइ सविम्हओ विभूईओ। पत्थेइ तासुरजइ तयजणपरायणो होइ॥१६॥ आर्त ध्यानी ख़ुद के कर्मों की निन्दा और दूसरों की विभूतियों की आश्चर्यपूर्ण प्रशंसा करता है। वह उन विभूतियों को पाने की इच्छा करता है। उनके प्रति मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हें पाने को उद्यत होता है। सद्दाइविसयगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहोपमायपरो। जिणमयमणवेक्खंतो वट्टइ अट्टमि झाणंमि॥१७॥ आर्तध्यानी इन्द्रिय विषयों के सम्मोहन में पड़ा रहता है। सच्चे धर्म से विमुख हो जाता है। प्रमाद में पड़ जाता है। जिनमत की आवश्यकता का अनुभव नहीं करता। आर्तध्यान में ही लगा रहता है। तदविरय-देसविरया-पमायपरसंजयाणुगं झाणं। सव्वप्पमायमूलं वजेयव्वं जइजणेणं ॥१८॥ आर्त ध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत जीवों को होता है। आर्त ध्यान सभी प्रमादों की जड़ है। मुनि और श्रावक सभी को इससे बचना चाहिए। सत्तवह-वेह-बंधण-डहणंऽकण-मारणाइपणिहाणं। अइकोहग्गहघत्थं निग्घिणमणसोऽहमविवागं॥१६॥ तीव्र क्रोध के वशीभूत निर्दय हृदयवाले जीव में अन्य जीवों के वध, वेध, बन्धन, दहन, अंकन, मारण आदि का विचार आना हिंसानुबन्धी नामक पहला रौद्र ध्यान है। इस रौद्र ध्यान का परिणाम अधम होता है। 12

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