Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 30
________________ तापो सोसोभेओ जोगाणं झाणओ जहा निययं। तह ताव-सोस-भेया-कम्मस्स वि झाइणो नियमा॥६६॥ जिस प्रकार ध्यान वचन आदि योगों का तापन, शोषण और विदारण करता है उसी प्रकार वह ध्याता के कर्मों का भी तापन, शोषण और विदारण करता है। जह रोगासयसमणं विसोसण-विरेयणोसहविहीहिं। तह कम्मामसयमणं झाणाणसण इजोगेहिं॥१०॥ जिस प्रकार शोषक और विरेचक विधियों तथा औषधियों से रोग का शमन किया जाता है उसी प्रकार ध्यान, उपवास आदि से कर्मरूपी रोग को शान्त किया जाता है। जह चिरसंचियमिंधणमनलो पवणसहिओ दुयं दहइ। तह कम्मेंधणममियं खणेण झाणाणलोडहइ॥१०१॥ जिस प्रकार तेज़ हवा वाली आग लम्बे समय से इकट्ठा हुए ईंधन को शीघ्र जला डालती है, उसी प्रकार ध्यान की आग संचित कर्मों के ईंधन को क्षण मात्र में जला देती है। जह वा घणसंघाया खणेणे पवणाहया विलिजंति। झाण-पवणावहूया तह कम्म-घणा विलिजंति॥१०२॥ जैसे हवा से ताडित होकर बादलों का समूह क्षणभर में विलीन हो जाता है वैसे ही ध्यान की हवा से विघटित होकर कर्म के बादल विलीन हो जाते हैं। न कसायसमुत्थेहि य बाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं। ईसा-विसाय-सोगाइएहिं झाणोवगयचित्तो॥१०३।। जो चित्त ध्यान में लीन रहता है वह कषायों से उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से पीड़ित नहीं होता।

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