Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 12
________________ एयं चउव्विहं राग-दोस-मोहंकियस्स जीवरस्। अट्टज्झाणं संसारवद्धणं तिरियगइमूलं ॥१०॥ यह चार प्रकार का आर्त ध्यान राग, द्वेष एवं मोह से कलुषित व्यक्तियों को ही होता है। आर्त ध्यान तिर्यंच गति का और जन्म मरण की वृद्धि का मूल कारण है। मज्झत्थस्स उ मुणिणो सकम्मपरिणामजणियमेयंति। वत्थुस्सभावचिंतणपरस्स समं (म्म) सहंतस्स ॥११॥ मुनिजन रागद्वेष में तटस्थ रहते हैं। वे जानते हैं कि हर चीज़ पूर्व जन्म के कर्मों का परिपाक है । इसलिए वे वस्तु स्वभाव के चिन्तन में लीन रहते हुए सभी कुछ समतापूर्वक सहन करते हैं। कुणओ व पसत्थालंबणस्स पडियारमप्पसावजं। तव-संजमपडियारं च सेवओधम्मणियाणं॥१२॥ अगर कोई साधुप्राप्ति की आकांक्षा से रहित है और ज्ञान की प्रशस्त सहायता से तप तथा संयम के रूप में उक्त वेदना का प्रतिकार करता है तो भले ही उसे अल्प और अनिवार्य पाप का सहारा लेना पड़ता हो, उसका प्रतिकार धर्मध्यान है। वह आर्त ध्यान नहीं है। रागो दोसो मोहोय जेण संसारहेयवो भणिया। अट्टमि य ते तिण्णिवि तो तं संसार-तरुवीयं ॥१३॥ राग, द्वेष और मोह को संसार का कारण माना गया है। ये तीनों आर्त ध्यान में ही फलते-फूलते हैं। इसीलिए आर्त ध्यान को संसार रूपी वृक्ष का बीज कहा गया है। कावोय-नील-कालालेस्साओ णाइसंकिलिट्ठाओ। अट्टज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणिआओ॥१४॥ कर्मों के उदय से आर्त ध्यानी को कापोत, नील और कृष्ण लेश्याएं होती हैं। लेकिन उसमें वे उतनी प्रभावी नहीं होतीं जितनी रौद्र ध्यानी में होती हैं। 11

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