Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 23
________________ एएच्चिय पुब्वाणं पुब्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा। दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो॥६४॥ धर्म ध्यान के यही उक्त ध्याता पहले और दूसरे शुक्ल ध्यान के ध्याता हैं। अन्तर यह है कि ये अतिशय प्रशस्त संहनन से युक्त होते हुए श्रुतकेवली होते हैं जबकि तीसरे और चौथे शुक्ल ध्यान के ध्याता क्रमशः सयोग केवली और अयोग केवली होते हैं। झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो। होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुट्विं॥६५॥ धर्म ध्यान से सुवासित चित्तवाले मुनि को ध्यान के अवस्थित न रहने पर अनित्य आदि भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए। होंति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीय-पम्म-सुक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्व-मंदाइभेयाओ॥६६॥ धर्म ध्यान से युक्त मुनि को क्रमशः विशुद्धि प्रदान कराने वाली पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होती हैं। इन लेश्याओं के तीव्र, मन्द आदि भेद होते हैं। आगम-उवएसाऽऽणा-णिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं। भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंगं॥६७॥ जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट जीव, अजीव आदि पदार्थों में आगम, उपदेश तथा आज्ञा से उत्पन्न होने वाली अथवा स्वभावतः उत्पन्न होने वाली श्रद्धा धर्मध्यान की परिचायक है। जिणसाहूगुणकित्तण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णो। सुअ-सील-संजमरआ धम्मज्झाणी मुणेयव्वो॥६८॥ जिनेन्द्र भगवान और मुनियों के कीर्तन, प्रशंसा, विनय एवं दान से संपन्न होता हुआ जो व्यक्ति श्रुत, शील और संयम में लीन रहता है उसे धर्मध्यानी समझना चाहिए। 22

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