Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ सुनिउणमणाइणिहणं भूयहियं भूयभावणमह (ण) ग्घं। अमियमजियं महत्थं महाणुभावं महाविसयं ॥४॥ झाइज्जा निरवजं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं। अणिउणजणदुण्णेयं नय-भंग-पमाण-गमगहणं ॥४६॥ अत्यन्त निपुण, अविनश्वर, प्राणी मात्र की हितकारी, सत्य को प्रकट करने वाली, अमूल्य, अमित, अजित, महान अर्थवती, महानुभाव, महान विषयवाली तथा लोक को प्रकाशित करने वाली जिनेन्द्र भगवान की निर्दोष वाणी का ध्यान करना चाहिए । नय, भंग, प्रमाण और गम से गम्भीर वह निर्दोष वाणी अज्ञानियों के लिए दुर्बोध है। तत्थ य मइदोब्बलेणं तव्विहायरियविरहओ वावि। णेयगहणत्तणेण य णाणावरणोदएणंच॥४७॥ हेऊदाहरणासंभवे य सइ सुळुजं न बुज्झेजा। सब्वण्णुमयमवितहं तहावितं चिंतए मइमं ॥४८॥ बुद्धि की दुर्बलता, वस्तु स्वरूप का विश्लेषण करने वाले आचार्यों के अभाव, ज्ञेय विषय की गम्भीरता, उदाहरणों के न होने और ज्ञानावरणी दोष के उदय के कारण तत्त्व को ठीक से समझना संभव नहीं है । तो भी यह चिन्तवन करते रहना चाहिए कि सर्वज्ञ का मत असत्य नहीं हो सकता। अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जंजिणा जगप्पवरा। जियराग-दोस-मोहा य णण्णहावादिणो तेणं ॥४६॥ जिनेन्द्र भगवान प्रत्युपकार की प्रत्याशा के बिना ही संसार के उपकार में तत्पर रहते हैं। वे राग, द्वेष, मोह को जीत चुके होते हैं । वे भला वस्तु स्वरूप की असत्य व्याख्या क्यों करेंगे? यह चिन्तवन करना चाहिए। 18

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34