Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 25
________________ उस्सारियेणधणभरो जह परिहाइ कमसो हुयासुव्व। थोविंधणावसेसो निव्वाइ तओऽवणीओ य॥७३॥ . तह विसइंधणहीणो मणोहुयासो कमेण तणुयंमि। विसइंधणे निरंभइ निव्वाइ तओऽवणीओ य॥७४॥ जैसे ईंधन का संभार कम पड़ जाने पर आग क्रमशः कम पड़ती जाती है और फिर उसके खत्म होने पर बुझ जाती है वैसे ही विषय रूपी ईंधन की कमी होने पर मन की आग परमाणु में सिमट जाती है। फिर विषयों का ईंधन खत्म होने पर बुझ जाती है। तोयमिव नालियो तत्तायसभायणोदरत्थं वा। परिहाइ कमेण जहा तह जोगिमणोजलं जाण ॥७॥ योगी के मन को किसी घड़े के अथवा लोहे के गरम बरतन के क्रमशः कम होते जाने वाले पानी की तरह समझना चाहिए। एवं चिय वयजोगं निरंभइ कमेण कायजोगंपि। तो सेलेसोव्व थिरो सेलेसी केवली होइ॥७६॥ मन के योग के समान ही केवली वचन और काया के योग का भी निरोध करते हैं और फिर सुमेरु पर्वत के समान स्थिर होकर शैलेशी केवली हो जाते हैं। उप्पाय-ट्ठिइ-भंगाइपज्जयाणं जमेगवत्थुमि। नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं॥७७॥ सवियारमत्थ-वंजण-जोगंतरओ तयं पढमसुक्कं होइ पुत्तवितक्कं सवियारमरागभावस्स ॥७८॥.. जिसमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अवस्थाओं का द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक आदि नयों की दृष्टि से पूर्वगत श्रुत के अनुसार चिन्तन किया जाता है वह अर्थान्तर, व्यंजनान्तर तथा योगान्तर के कारण पृथकत्व वितर्क सवीचार नामक पहला शुक्ल ध्यान है। यह वीतराग को होता है। 24

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