Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 27
________________ जह छउमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो। तह केवलिणो काओ सुनिच्चलो भन्नए झाणं ॥८४॥ जैसे संसारी व्यक्ति के अविचल हुए मन को ध्यान कहा जाता है वैसे ही केवली के अतिशय अविचल हुए शरीर को ध्यान कहा जाता है। पुव्वप्पओगओ चिय कम्मविणिज्जरणहेउतो यावि। सद्दत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमाओ य॥८॥ चित्ताभावेवि सया सुहुमोवरयकिरियाइ भण्णंति। जीवोवओगसब्भावओ भवत्थस्स झाणाई॥८६॥ चित्त का अभाव हो जाने पर भी पूर्वप्रयोग, कर्मनिर्जरा, शब्दार्थ बहुलता और जिनेन्द्र भगवान कृत आगम के आधार पर संसार स्थित केवली का ध्यान सूक्ष्मक्रिय अनिवर्ति तथा व्युपरतक्रिय-अप्रतिपाति ध्यान कहलाता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि संसार स्थित केवली में चित्त का अभाव हो जाने के बावजूद उसमें जीवोपयोग रूप चित्त तो विद्यमान ही रहता है। सुक्कज्झाणसुभावियचित्तो चिंतेइ झाणविरमेऽवि। णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो॥८७॥ शुक्ल ध्यान से सुसंस्कृत और चारित्र से युक्त ध्यानसाधक ध्यान के समाप्त हो जाने पर भी चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करता है। आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च। भवसंताणमणन्तं वत्थूणं विपरिणामं च॥८॥ कर्मागम के कारण होने वाले दुःख, संसार की अशुभरूपता, जन्ममरण रूप भवसंतान और चेतन-अचेतन वस्तु मात्र की नश्वरता ये चार अनुप्रेक्षाएं हैं। 26

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